लक्ष्मण का कोप / विज्ञान प्रकाश
जिसकी आभा से उद्भासित
होते सारे नक्षत्र निकर
करता प्रणाम "प्रकाश" , जिससे
पाते हैं ज्ञान सब वेद प्रवर।
काम पाश में बंधी नखा से
यों दृग किये रघुनन्दन ऐसे,
" भार्या को दिया वचन है जो
इक्ष्वाकु तोड़ेगा कैसे?
सपत्नीक संग रहना क्या
तुम जैसी स्त्री को भायेगा?
कोई स्वाभिमानी तुम्हारे जैसा
क्या दूसरा पद ले पाएगा?
ये भाई मेरा लक्ष्मण है
सब गुणों से पूर्ण द्विजोत्तम है,
है शीलवान, गुणवान, वीर,
है रूपवान पत्नी विहीन।
नहीं भार्या इसकी संग यहाँ
है युवक, सरल व सुंदर है,
जो संग तुम्हारा निभा सके
ये ऐसा वीर धुरंधर है।
सुन्दरतम तुम विशालाक्षि
होगी लक्ष्मण की अङ्ग,
होगा मेरु पर सूर्योदय, जैसे
प्रभात का अद्भुत प्रसंग। "
रघुवर के मीठे वचनों से
कामातुर निशिचरी गई छली,
फिर भरकर दंभ रूपसी वो
भ्राता लक्ष्मण की ओर चली।
" मेरे सम सुंदर काया वीर
ना रति में भी तुम पाओगे,
जो संग मेरा स्वीकार करो
दंडक का राज तुम पाओगे। "
सुनकर निवेदन सुमित्रानंदन
जो दक्ष कर शब्दों का चयन,
फिर राक्षसी से यों बोले
उपयुक्त प्रत्युत्तर लक्ष्मण।
" ओ कमलवर्णिनि सुन्दरी
कैसे बनोगी संगिनी,
मैं दास पुरुषोत्तम का हूँ
तुम उन्मुक्त वनचारिणी।
हो स्वच्छंद जीवन जिसका
कैसे बन दासी रह सकती,
निश्चय ही राम हैं योग्य पुरुष
जिन संग तुम्हारी योग्य गति।
छोड़ कुरूपा को रघुवर फिर
संग तुम्हारे आयेंगे,
इस डरी, वृद्ध, त्यज्या को प्रभु
फिर क्योंकर देह लगाएंगे।
हे सुंदर चपला वरारोहा
अरे कौन मूर्ख वह नर होगा,
त्याग आपको स्थान वाम
किसी और स्त्री को जो देगा। "
लक्ष्मण ने कहे जो शब्द सभी
कर माता को सम्बोधन,
मान सत्य सबको दनुजा ने
ले लिया राम के संग का प्रण।
कामातुरा उस दंभिनी की दृष्टि
फिर कुटीर की ओर चली,
देख सिया संग राम को दुष्टा
अजेय राम से यूँ बोली।
" रख कुरूप, इस व्यभिचारिणी को
वाम में तुम हो प्रसन्नचित्त,
नहीं देते स्थान क्यों उसको, मेरा
प्रेम जो है तुम्हारे प्रणीत।
कर भक्षण नेत्रों समक्ष
मुक्त करूँ मैं तुम्हें इसी क्षण
जीवन भर आनंदित फिर
साथ रहूँ अर्धांगिनी बन। "
बढ़ी जानकी ओर विकराला
कर वन में कंपन व शोर,
उल्का कोई विशाल ज्यों
बढ़ी हो रोहिणी की ओर।
कर अवरोध राघव कुत्सा का
जिसने सीता पर वार किया,
शांत चित्त पुरुषोत्तम ने
हो कुपित लक्ष्मण से वचन कहा।
" हे तात, असभ्यों से दुष्कर
है परिहास भी अब करना,
देखो कैसे नखों से इसके
सीता का रक्षण पड़ा करना।
मनुषों में व्याघ्र, ओ भ्रात मेरे
ये राक्षसी परम अभागी है,
किया जो इसने क्रूर कृत्य
ये कठिन दंड की भागी है। "
ये वचन जो बस सुनना भर था
लक्ष्मण ने कर में खडग धरा,
कुत्सित राक्षसी को अग्रज के
शब्दों पर कर्ण-घ्राण विहीन किया।
विकटा अंगों से हो विहीन
भागी वन में हो रूप रहित,
दंडक की रानी हो विकृत
करती प्रलाप सम वज्र गीत।