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लगे थे साज़िश-ए-नापाक में दिमाग़ कई / ओम प्रकाश नदीम

लगे थे साज़िश-ए-नापाक में दिमाग़ कई
न जाने कैसे मगर मिल गए सुराग़ कई

हमारी लौ को कोई ग़म नहीं है बुझने का
हमारी लौ से जले हैं बुझे चराग़ कई

वो अब चराग़ का चेहरा लगा के आया है
वो रौशनी के उजाड़े हैं जिसने बाग़ कई

अगरचे धो दिया दामन को अपने उसने मगर
सबूत देने को अब भी बचे हैं दाग़ कई

ये कंकरीट का जंगल है ख़ूनख़्वार बहुत
यहाँ शहीद किए जा चुके हैं बाग़ कई

वो बद-दिमाग़ है लेकिन कमाल ये है ’नदीम’
कि बद-दिमाग़ के पीछे भी हैं दिमाग़ कई