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लघुता की महिमा / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
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हुआ चाहता एक तान में
शेष, गान जग का मधुमय,
दो अधरों का स्मित बनने को
विश्व-रूप करता अनुनय;
बन लघु जुही एक कोने में
झरा चाहता नंदनवन,
धरा एक रजकण में अपना
भरा चाहती है यौवन;
‘स्वाति-बिंदु बन बरस पडूँ’--है
निश्चय करता सिंधु गहन,
बनकर लघु तारा प्रभात का
ढला चाहता नील गगन;
लघुता की महिमा पर विस्तृत
विश्व वारता है जीवन,
कवि का हृदय ढलकता है जब
विदा-काल का आँसू बन।