भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लज्जावस्त्र / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रास्ते से जा रही हूँ
और मेरे वस्त्र खुलकर गिरते जा रहे हैं
मैं नग्न हुई जा रही हूँ माँ!
और आखि़र घुटनों के बल बैठ जाती हूँ
दोनों हाथों से जकड़ लेती हूँ
दोनों घुटनों को,
छुपा लेती हूँ अपना चेहरा
अपना पेट अपना सीना
खुली पीठ पर अनगिनत तीर बिंधने लगते हैं
माँ, यकृत तक को तार-तार कर रही हैं नज़रें
हृदय और फेफड़ों को भी ...

शायद ये सब दुःस्वप्न हैं
लेकिन दुःस्वप्न तो हर रास्ते पर बिखरे हुए हैं
भागने की जी जान से कोशिश करती हुई
मैं गलियों कोनों-अँतरों में घुस जाती हूँ
हर तरफ़ भीड़ ही भीड़!!
कितने कौतूहल से देखती रहती हैं गलियाँ
दोनों ओर से दीवार को जकड़ लेती है
मेरा दम घुटता जा रहा है
अट्टहासों का झुण्ड मेरी ओर दौड़ता आ रहा है
ओ माँ, ख़ून की धार में बही जा रही हूँ
खू़न पोंछूँ किस तरह...
मेरी देह पर कपड़े का एक टुकड़ा भी नहीं
भयंकर लज्जा से मरी जा रही हूँ

आखि़रकार मैं किस तरह
अपने घर लौट सकी भगवान जाने...
और माँ, उधर उन लोगों ने तब
मेरे नग्न शव को
परचम से ढँकना शुरू कर दिया था...