भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लड़की बिकाऊ है / सुधा चौरसिया
Kavita Kosh से
काजल की डिब्बी से लेकर
बड़े-बड़े समानों के साथ
उसे ही तो बेचा जा रहा है
वह बिकती है
छोटीे-छोटी पत्र-पत्रिकाओं से लेकर
बड़े-बड़े साहित्यों में
बिकना सिर्फ़ उसकी मजबूरी नहीं
कमजोरी भी है
वह बिक जाना चाहती है
बाप का बुढ़ापा
माँ की खाँसी
छोटे भाई की परवरिश
और पान की दुकान पर
होनी वाली चर्चाओं की एवज में
अपनी आवश्यकताओं के मुताबिक
उसके पवित्र अंगों की हाट लगायी जाती है
सराही जाती है, खरीद ली जाती है
वह खुश हो जाती है और भूल जाती है कि
उसे नहीं, उसके कलेवर को
गिद्धों की मानसिकता वाले समाज ने हड़प लिया है
जिसे हड्डियों में तब्दील कर छोड़ दिया जायेगा...