लड़की / अर्चना कुमारी
एक लड़की
कोमल छाती को वज्र दिखाती
आंखों को पत्थर बनाती
भीतर-भीतर होती है नदी
नदी आईना होती है
जाने कितने अस आते
गुजर जाते बहाव में
किनारों से लिपटी नदी
उतनी ही निर्लिप्त थी उनसे
जितनी स्थिर गति में
चेहरों के प्रकार जितने ही
हुआ करती हैं रुहें भी उनकी
किसी ने हाथ धोए
किसी ने पैर
किसी ने आंखें
किसी ने मन
कोई नहाकर निकल गया
शिकायतें छोड़ गया वहीं किनारे पर
नदी जानती है विसर्जन का अर्थ
और जानती है क्षमा भी
चरित्र गढ़ती दुनिया का पहरेदार
ऊंगली कोचता रहा आंखों में
और तय कर दिया
नदी का चरित्रहीन होना
गिनवाए कितने ही प्रेयस
सागर-मिलन की यात्रा सहचर के
चुप नदी स्तध थी
नि:शद नहीं...!
लड़की जानती है
कि गुनाह है हंसना
पाप है साथी चुनना हंसी, आंसू, सपनों का
अपराध है प्रेम...
वह जानती है बिना पथर मारे भी
उसे दिया जाएगा मृत्युदंड
सवालों की सूली पर चढ़ाकर
ठोंक दिए जाएंगे कील नैतिकता के
जीभ काट दी जाएगी जवाबों वाली
चीखें फिर जोर से गरजेंगी
कुल्टा, चरित्रहीन, वेश्या, कलंक!
खालीआंखों का वीभत्स अट्टाहास
लहूलुहान होकर धरती में घुल जाएगा
देखना किसी दिन निकलेगा
विरोध का दरख्त रक्तिम
उगाए हुए पैने नाखून
धारदार जिह्वा
नदी का जिस्म काला होगा
आत्मा नीली
लड़की मर चुकी होगी
और खोखली दुनिया में
इल्जामों की थोथी झंकार लिए हुए
भटकती रहेगी सत्ता
लड़की का मर जाना
तुम्हारी पापों की विभत्स्तम सजा होगी
और मरी लड़की ज़िन्दा रहेगी तुममें
तुम्हारा आइना बनकर
एक पल में सौ मौत मरना...!