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लड़ता रहा उमर भर मैं / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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लड़ता रहा उमर भर मैं
लड़ता रहा उमर भर मैं
विपरीत हवाओं से
पर न हिले दृढ़ रहे इरादे
लौह शिलाओं से
पाकर ताप बर्फ सा गलना
मुझे नहीं आया
और आम को इमली कहना
भी न मुझे भाया
पग-पग मिले न जाने कितने
दंश छलावों से
लोगों ने मुझ पर सुख सुविधा
के डोरे डाले
चाबुक दिखला जड़ने चाहे
ओठों पर ताले
अंगारों पर चला रात दिन
नंगे पाँवों से
काँटे चुभे डगर भर फिर भी
हार नहीं मानी
रोक न पाया मुझे समय का
धारदार पानी
रहा जूझता बेगुनाह ही
मिली सजाओं से