भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़ाकू का रूमाल / रमेश क्षितिज / राजकुमार श्रेष्ठ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वैच्छिक अवकाश लिए
घर लौट रहा पूर्व लड़ाकू
रास्ते के किनारे बनी
चाय की झोपड़ीनुमा दुकान पर
भूल गया है अपना
पसीना पोंछकर रखा रुमाल

जाने किस ख़याल में था वो
और भूल गया
अश्कों के अल्फ़ाज़ से लिपिबद्ध किए हुए

अनेक कहानियों का एक संग्रह जैसा
बूँद- बूँद पसीने से भीगा हुआ
कोई गम्भीर तैलचित्र-सा
                          और तो और कैन्टोनमेंट के उदास दिनों में
कभी हाथ में, कभी गले में
कभी न छूटने वाला साथी जैसा –रुमाल

घर पहुँचकर देखेगा वो
कील पर टंगा हुआ स्कूल का बस्ता
जो कि वो छोड़ गया था आँगन में अरसा पहले
और शामिल हुआ था सैन्य तालीम में

देखेगा वो शहीद घोषित की गई
निर्दोष बहन की तस्वीर
उसके ऊपर सूख चुकी माला
                          याद करेगा – जनता की मुक्ति के लिए

ख़ुद क़ुबूल की सदस्यता
कुछ पूछ रहे हों जैसे लगेंगी
तस्वीर की चमकीली आँखें

बेचारा कहकर दुलारने वाली दादी माँ नहीं होंगी अब
नहीं होंगे रोकर रास्ता रोकने वाले कोई
साँझ के फ़लक से टूटी अख्तर-सी
खो जाएगी ख़ुशी अचानक
सामने होंगे जटिल सवाल-से माँ-बाप के चेहरे
बेटा ! कहाँ लहरा रहा है इंक़लाब का लाल झंड़ा ?

आँखों में छलक-छलक छलकेंगे आँसू
फिर ढूंढ़ेगा वो यही रुमाल !

स्वैच्छिक अवकाश लिए
घर लौट रहा पूर्व लड़ाकू
रास्ते के किनारे बनी
चाय की झोपड़ीनुमा दुकान पर
भूल गया है
पसीना पोंछकर रखा रुमाल

मूल नेपाली भाषा से अनुवाद : राजकुमार श्रेष्ठ