लम्बी उमर लाद कर चलना / यतींद्रनाथ राही
काम कठिन
आसान नहीं है
लम्बी उमर
लाद कर चलना।
आँखों के
असमर्थ निवेदन
क़दमों के पथराये कम्पन
टूट रहे सम्बल साँसों के
रिश्तों के ढीले अनुबन्धन
हर मौसम
मुँह फेर खड़ा है
चलती हैं कटखनी हवाएँ
कन्नी काटे खड़े सहारे
हैं कितनी प्रतिकूल फिज़ाएँ
सहज नहीं
गंगा तक जाना
या
मन्दिर की सीढ़ी चढ़ना।
पीछे
अपने नीड़ खरौंदे
आँगन के मटियारे सपने
एक बड़ा कुनवा था घर का
पशु-पक्षी तक
थे सब अपने
भोजपत्र थे संस्कारों के
बिखरे पड़े रेत में मोती
पहले पहल
जहाँ आती थी
किरन सबेरे की मुँह धोती
झूल रहा है वहाँ आज भी
संस्कृतियों का
पावन पलना।
पर चलना ही है आगे
तो
पंथ-कुपंथ और क्या दूरी
जहाँ हौसलों में जीवट है
होती है कैसी मजबूरी
जब तक साँसें हैं पंखों में
धरती क्या
अम्बर नापेंगे
लिक्खेंगे हम अन्तरिक्ष में
कल के
नए पंख बाँचेंगे
हाथ गहा है
महाशक्ति ने
रोकेगी कैसे
क्या छलना?
17.12.17