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लम्हा गुज़र गया है कि अर्सा गुज़र गया / गौतम राजरिशी
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लम्हा गुज़र गया है कि अर्सा गुज़र गया
है कौन वो जो वक़्त की साजिश ये कर गया
अब उम्र तो ये बीत चली सोचते तुम्हें
इतना हुआ है हाँ कि ज़रा मैं सँवर गया
सिमटा था जब तलक वो हथेली में, ठीक था
पहुँचा लबों पे लम्स तो नस-नस बिखर गया
यूँ तो दहक रहा था वो सूरज-सा दूर से
जो पास जा के छू लिया, कैसा सिहर गया
देखूँ तुझे क़रीब से, फ़ुरसत से, चैन से
मेरा ये ख़्वाब मुझको लिये दर-ब-दर गया
इक रोज़ तेरा नाम सरे-राह ले लिया
चलता हुआ ये शह्र अचानक ठहर गया
मिसरा सिसक रहा था अकेला जो देर से
याद उसकी आ गयी तो ग़ज़ल में उतर गया
(अहा ज़िंदगी, जुलाई 2011)