भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लरज़ता है मेरा दिल, ज़हमते-मेहरे-दरख़्शां पर / ग़ालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लरज़ता है मेरा दिल, ज़हमते-मेहरे-दरख़्शां पर
मैं हूं वह क़तरह-ए शबनम कि हो ख़ार-ए बयाबां पर

न छोड़ी हज़रत-ए यूसुफ़ ने यां भी ख़ानह-आराई
सफ़ेदी दीदह-ए य`क़ूब की फिरती है ज़िनदां पर

फ़ना-त`लीम-ए दरस-ए बे-ख़वुदी हूं उस ज़माने से
कि मजनूं लाम अलिफ़ लिखता था दीवार-ए दबिसतां पर

फ़राग़त किस क़दर रहती मुझे तशवीश-ए मरहम से
बहम गर सुलह करते पारहहा-ए दिल नमक-दां पर

नहीं इक़लीम-ए उलफ़त में कोई तूमार-ए नाज़ ऐसा
कि पुशत-ए चशम से जिस के न होवे मुहर `उनवां पर

मुझे अब देख कर अबर-ए शफ़क़-आलूदह याद आता
कि फ़ुरक़त में तिरी आतिश बरसती थी गुलिसतां पर

ब जुज़ परवाज़-ए शौक़-ए नाज़ कया बाक़ी रहा होगा
क़ियामत इक हवा-ए तुनद है ख़ाक-ए शहीदां पर

न लड़ नासिह से ग़ालिब कया हुआ गर उस ने शिददत की
हमारा भी तो आख़िर ज़ोर चलता है गरेबां पर