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ललन की छवि पै बलि-बलि जाऊँ / स्वामी सनातनदेव

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राग पूरिया, तीन ताल 21.7.1974

ललन की छवि पै बलि-बलि जाऊँ।
सकल सिंगार-सार-मूरति लखि उपमा कहूँ न पाऊँ॥
काली घुँघराली अलकावलि लखि अलि-अवलि भुलाऊँ।
वदन-चन्द्र पै गगन-चन्द्र की सुखमा वारि लुटाऊँ॥1॥
मुसकन पै सुमनन की विकसन कैसे पटतर लाऊँ।
दसन-कान्ति पै मणि-मुक्ता की भ्रान्ति न उर उपजाऊँ॥2॥
नयनन पै खंजन मृग मछरी तीनहुँ वारि सिहाऊँ।
चितवन चोट पाय मनसिज को बानहुँ खोट लखाऊँ॥3॥
तिलक-रेख लखि कनक-मेख हूँ उर तर कबहुँ न लाऊँ।
बंक भृकुटि की गरिमा पै धनु की उपमा लघु पाऊँ॥4॥
अंग-अंगकी अनुपम छवि पै कोटि अनंग लुटाऊँ।
ता नित नव छलकत छबिक सम रबि हूँ कबहूँ न पाऊँ॥5॥
हैं अनुपम चिन्मय मनमोहन, का जड़ उपमा लाऊँ।
यासों सब तजि एक स्याम ही निज मन-भवन बसाऊँ॥6॥