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लहकते धान की एक-एक बाली सूख जाती है / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
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लहकते धान की एक-एक बाली सूख जाती है
अगर सींची नही जाती तो खेती सूख जाती है
अलग माँ-बाप से रह कर कोई सुख से नही रहता
शज़र से टूट कर हर एक डाली सूख जाती है
न जाने कितने ग़म ए ज़िन्दगी तू ने दिए होगे
जो तेरे नाम पर ही जान उसकी सूख जाती है
किसी को इक निवाला भी नही मिलता है खाने को
किसी के घर मे रक्खे-रक्खे रोटी सूख जाती है
किसी को मौत देती है किसी को ज़िन्दगी यूँ भी
वही जलती है चूल्हे मे जो लकड़ी सूख जाती है
जो लिखने बैठता हूँ दास्ताने-ज़िन्दगी अपनी
तो फट जाता है काग़ज़, रोशनाई सूख जाती है
मै रो लेता हूँ तन्हाई मे अकसर इस लिए ’बेख़ुद’
न हो गर तेल दीपक मे तो बाती सूख जाती है