लहरों उठो / अनिल मिश्र
किनारों को छोड़कर
दूर अन्दर चला गया है समुद्र
और पीछे छोड़ गया है
अनगिनत तड़पते जलचर
इस शाम में समुद्र के बहुत से रंग लेकर
सूरज कहीं भाग गया है
कहां छिप गया होगा चालाक
कह नहीं सकते
जो आवाजें नारियल के पेड़ों के झुरमुटों से आ रही हैं
वे लहरों की गर्जना हैं
और सन्नाटों ने चुराकर उन्हें कैद कर रखा है
कह नहीं सकते
समुद्र में भाटा है या किसी मंदी का असर
पानी की अर्थव्यवस्था पर
लहरें कब लौटेंगी पूरी रंगत में
फिर नाचती हुई हमारे पांवों पर
कह नहीं सकते
हमारे आत्मा के अंतरिक्ष में
हवा छन छन के बहुत पतली हो गई है
पेड़ों की पत्तियां हैं बिलकुल स्थिर
ध्यान की मुद्रा में
स्मृतियों के कुछ पक्षी उड़ रहे हैं
पर उन्हें अपनी दिशाओं को लेकर भ्रम है
इतना कलरव मचता है कि
जहां बैठा हूं उस जगह को छोड़कर
कहीं और जाना होगा
कठिन समयों में संघर्ष करने के तारे हैं
जो बहुत थोड़ी संख्या के बावजूद
चटख चमक रहे हैं- शुक्र है
मैं अकेला चला आया इस मावस की रात को
और अपने चांद के उगने की प्रतीक्षा कर रहा हूं
पता है दादा, ये जो पुराना शहर है
अपने काठ होते हृदय के लिए
रोज रोज तुम्हारे पास आता है
और तरंगों से अपनी बस्तियों के लिए
थोड़ी धड़कनें ले जाता है
दादा जगो !
उत्सव जीने का प्रमाण है
मन मार के बैठने से जिन्दगी रूठ जाती है
उठो कि नाविक उतरेंगे अभी
अपनी नावें लेकर तुम्हारे जल में
एक लम्बी यात्रा पर
उस ओर जहां नवजात शिशु की तरह
आंखें खोलते द्वीप हैं
तुम्हारे चलने से ही जागेंगे वनस्पतियों के रंग
इतिहास में सो गयी सदियां जागेंगी
जिन्हें लूट कर ले गए थे लुटेरे,
टेरती हुई अपनी संगिनों का गीत
जांता, कटनी, चैता और फाग जागेंगे
दौड़कर कूदेंगे उदास बच्चे
मींचते अपनी आंखें
पानी में छप छप छपाक
आसमान के सीने में भी उठेगी लहर
बन्द दरवाजों से बाहर निकल आएगा शहर
लहरों उठों !
कि दुनिया में लगा रहेगा चांद का आना-जाना