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वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणाया:
संसर्पन्त्या: स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभे:।
निर्विन्ध्याया: पथि भव रसाभ्यन्तर: सन्निपत्य
स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु।।
लहरों के थपेड़ों से किलकारी भरते हुए
हंसों की पंक्तिरूपी करधनी झंकारती हुई,
अटपट बहाव से चाल की मस्ती प्रकट
करती हुई, और भँवररूपी नाभि उघाड़कर
दिखाती हुई निर्विन्ध्या से मार्ग में मिलकर
उसका रस भीतर लेते हुए छकना।
प्रियतम से स्त्री की पहली प्रार्थना
शृंगार-चेष्टाओं द्वारा ही कही जाती है।