लहू के एक रंग / नूतन प्रसाद शर्मा
एक बरोबर सब प्रानी हें, कोनो नइये छोटे - बड़े।
अतेक मरम ला जान के काबर अपने अपने मं झंगड़े।
दू आंखी दू पांव कान दू,सब के दू ठन हाथ,
सब धरती दाई के लइका, एक किसम के माथ।
तब का कारन दीन धनी के जब्बर परदा अड़े खड़े।
एक बरोबर सब प्रानी हे, कोनो नइये छोटे बड़े।
एक्के चमड़ी गोठ हा एक्के, हम उपजेन एक संग रे,
एक रंग के लहू बोहाथे, दीन - धनी के देह रे।
तब का बात हे भेदभाव के बीमारी कंस के जम्हड़े।
अतेक मरम ला जान के काबर अपने - अपने म झगड़े।
सुरूज ला देखो एक बरोबर, सब ला देत प्रकास रे,
रूख फर देथे तरिया हा जल, हवा हा सबके पास रे।
छर्री दर्री कर दो संगी, शोसन कंजे बड़े - बड़े।
एक बरोबर सब प्रानी हें, कोनो नइये छोटे - बड़े।
अपन सुवारथ के पूरा बर खींचेन भेद के डांड़ गा,
अपन बाग मं जहर छिंचे हन, तभे बेंचागे रांड़ गा।
ए कारन अपने भाई ले मुंह उल्टाकेहवन खड़े।
अतेक मरम ला जान के काबर अपने - अपने म झगड़े।
दीन - धनी के कोढ़ ला, जलगस देवत रहिबो मान जी,
तलगस भारत गारत होही,सरही सुख के जाम जी।
झगरा - झंझट मार लड़ाई, दंगा रहही इंहे गड़े।
एक बरोबर सब प्रानी हें, कोनो नइये छोटे - बड़े।