भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाचारी / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

हृदय से कहता हूँ कुछ गा
प्राण की पीड़ित बीन बजा
प्यास की बात न मुँह पर ला

यहाँ तो सागर खारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

सुरभि के स्वामी फूलों पर
चढ़ाए मैंने जब कुछ स्वर
लगे वे कहने मुरझाकर

ज़िन्दगी एक खुमारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

नहीं है सुधि मुझको तन की
व्यर्थ है मुझको चुम्बन भी
अजब हालत है जीवन की

मुझे बेहोशी प्यारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है