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लाजवन्ती / भारतरत्न भार्गव
Kavita Kosh से
कैसे पहुँच गया
लाजवन्ती के युवा पौधों के बीच
पता नहीं।
फूल ये गुलाब से सलोने
पर चौकन्ने
रोम-रोम सजी प्रतीक्षित मुखश्री
देखती रहीं कौतुकी दृष्टि
छू भर दिया अनछुए कपोलों को
सहमी फिर लजा गई
सखियों के आँचल में
लुक-छिप जाने को आकुल-व्याकुल
चित्ताकर्षक भंगिमा
अनुभव था नया-नया
विस्मृतियों को ताज़ा करते
मुड़ने लगे पाँव अनायास फिर
काँटों कँकरों भरी पगडण्डियों की ओर !
लौटते देख मुझे
आहिस्ता से खोली पलकें
उठी गरदन, कँपकँपाए ओठ
पढ़कर मेरी आँखें निस्पृह, निर्विकार
बोली धीमे चुपके से —
रूको, फिर नहीं छुओगे मुझे !