भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाज़िम है सोज़-ए-इश्क़ का शोला अयाँ न हो / रजब अली बेग 'सुरूर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लाज़िम है सोज़-ए-इश्क़ का शोला अयाँ न हो
जल-बुझिये इस तरह से कि मुतलक़ धुआँ न हो

ज़ख़्म-ए-जिगर का वा किसी सूरत वहाँ न हो
पैकान-ए-यार इस में शक्ल-ए-ज़बाँ न हो

अल्लाह रे बे-हिसी कि जो दरिया में ग़र्क़ हों
तालाब की तरह कभी पानी रवाँ न हो

गुल ख़ंदा-ज़न है चहचहे करती है अंदलीब
फैली हुई चमन में कहीं ज़ाफ़राँ न हो

भागो यहाँ से ये दिल-ए-नालाँ की है सदा
बहके हो यारो ये जर्स-ए-कारवाँ न हो

हस्ती अदम से है मिरी वहशत की इक शलंग
ऐ ज़ुल्फ़-ए-यार पाँव की तू बेड़ियाँ न हो

लेना ब-जाए फ़ातिहा तुर्बत पे नाम-ए-यार
मरने पे ये ख़याल है वो बद-गुमाँ न हो

नाक़ा चला है नज्द में लैला का बे-महार
मजनूँ की बन पड़ेगी अगर सार-बाँ न हो

चालों की चर्ख़ की ये मिरा अज़्म है ‘सुरूर’
इस सर-ज़मीं पे जाऊँ जहाँ आसमाँ न हो