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लातीनी अमेरिकी कवि पाब्लो नेरूदा / विनोद दास

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विश्व कविता पटल पर ऐसे कवि कम हैं जिन्होंने प्रेम और प्रकृति पर उसी आवेग और सम्वेदना से लिखा हो जितना क्रूर सत्ता के विरुद्ध संघर्ष पर। लातीन अमेरिका के पाब्लो नेरुदा ऐसे ही विरल कवि हैं।

पाब्लो नेरुदा का जन्म 12 जुलाई 1904 को पराल में हुआ। बचपन में उनका नाम रिकार्दो एलिसेर नेफ्ताली रेयस नासोआल्लो था। सोलह साल की उम्र में चेक लेखक यान नेरुदा से प्रभावित होकर उन्होंने अपना नाम “पाब्लो नेरुदा” रख लिया। माँ डोना रोसा और पिता डॉन फॉरमेन रेस मोरा लेस की संतान नेरुदा जब मात्र एक साल के थे,उनकी माँ तपेदिक से नहीं रहीं। टेमोको में उनका बचपन बीता। टेमोको की स्मृतियों को नेरुदा संस्मरणों की अपनी पुस्तक “मेमाअर्स” में बहुत आत्मीयता से याद करते हैं। टेमोको एक नया बसाया शहर था। यहाँ लोहे लक्कड़ की दुकानें इफ़रात में थी। दुकानदार अपनी दुकानों के बाहर बड़ी सी कड़ाही,बड़ा सा चम्मच,बड़े ताले और जूतों की प्रतिकृतियों से सजाते थे ताकि अनपढ़ ग्राहक उन्हें देखकर खरीदने आ सकें।

नेरुदा के पिता ब्लास्ट रेल कंडक्टर थे। रेल पटरियों को तूफ़ानों से उड़ने से बचाने के लिए बीच में बिछाये गये कंकड़ों को ब्लास्ट कहा जाता था। वर्ष 1910 में नेरुदा पढ़ने के लिए स्कूल गये। वह स्कूल से कोतीन नदी को निहारा करते थे। नदी के किनारे सेब के पेड़ की कतारें थीं। स्कूल की हर चीज़ नेरुदा को रहस्यमय लगतीं। उनके स्कूल का पुस्तकालय हमेशा बन्द रहता। बचपन में नेरुदा साहसिक कहानियाँ और समुद्री यात्रा कथाएँ उत्साह से पढ़ते थे। यह अज़ीब संयोग है कि नेरुदा बड़े होने पर विश्व के अनेक देशों की खूब यात्राएँ कीं।

नेरुदा के घर में लोहे की एक सन्दूक थी। इस संदूक में पुराने हाथपंखों के अलावा सैकड़ों पोस्टकार्ड जमा थे। इन प्यारे पोस्टकार्डों पर किसी अभिनेत्री या महल,शहर का चित्र बना होता था। दिलचस्प यह था कि पोस्टकार्डों को भेजने वाले का नाम नेरुदा के कुल-परिवार से नहीं मिलता था। पत्र मारिया बिल्सन को लिखे गये थे। नेरुदा इन रोमानी पत्रों को पढ़कर खुश होते थे। एक तरह से इन चिट्ठियों में व्यक्त प्रेम का नशा उन पर भी तारी होने लगा था।

स्कूल के दिनों में नेरुदा को भी प्रेमपत्रों को लिखने का अवसर मिला। उन्होंने अपने सहपाठी की ओर से ब्लांक विल्सन नामक लड़की को बेशुमार प्रेमपत्र लिखे। इन पत्रों को लिखते समय नेरुदा को अपने मन के कोमल भावों को भी व्यक्त करने का मौका मिला। दिलचस्प बात यह हुई कि उस लड़की से मुलाक़ात होने पर जब पत्र लेखक का भेद खुल गया तो उस लड़की ने नेरुदा से मुस्कराकर कहा कि काश ! तुमने अपनी तरफ से उन पत्रों को लिखा होता। उस लड़की ने उस दिन नेरुदा को उपहार के रूप में एक स्वादिष्ट फल दिया जिसे नेरुदा ने नहीं खाया बल्कि उसे ख़जाने की तरह संजों लिया। बाद में नेरुदा उस लड़की को नियमित रूप से प्रेम पत्र लिखने लगे। ब्लांक विल्सन इसके प्रतिदान में उन्हें उपहार के रूप में एक फल देती। उन दोनों के बीच यह सिलसिला काफी दिन चलता रहा। नेरूदा के इन प्रेमानुभवों ने उनकी कविता को कोमल और ऐन्द्रिक बनाया ।

नेरुदा कविता का मूल तत्त्व प्रेम ही है। कहना न होगा कि उनकी यह ऐन्द्रिकता नेरूदा की कविता की देह में रक्त की तरह बहती है। उनकी कविता की यह ऐन्द्रिकता पाठकों को अभिभूत ही नहीं,पूरी तरह आविष्ट भी करती है। शायद यही कारण था कि नेरूदा ने अपने एक इंटरव्यू में युवा कवियों को सलाह दी थी कि कविता लिखने की शुरुआत राजनीतिक कविता से नहीं,प्रेम कविता से करनी चाहिए। नेरुदा की शुरुआती कविताएँ अतियथार्थवाद से प्रभावित थीं। नेरुदा की परिवर्ती कविताएँ आम आदमी के संघर्ष और सरोकार से जुड़ने के बाद लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचीं।

नेरुदा छात्रसंघ की पत्रिका “क्लारीडाड” के सम्वाददाता भी रहे। स्कूल में वह साहित्यिक संस्था के अध्यक्ष थे। इस पत्रिका का सम्पादन अल्बर्ट रोज़ास ज़िमंजे करते थे जो बाद में नेरुदा के सबसे विश्वस्त मित्र बने। नेरुदा के इस मस्तमौला मित्र की ज़ेब में कवि अपोलिनियेर के नुस्खों से बनी नए फैशन की कविताएँ मुड़े-तुड़े पन्नों में लिखी पड़ी रहती थीं।

इसी तरह युवावस्था में दुबले-पतले अल्बर्टो बाल्दिया भी नेरुदा के अच्छे कवि मित्र थे। हर साल पहली नवम्बर को नेरुदा की टोली उनसे कविता सुनकर रात्रिभोज के बाद बाल्दिया को कब्रिस्तान ले जाते थे और वहीं बाल्दिया को अकेले छोड़कर वापस आ जाते थे। नेरुदा और उनके कई मित्र बाल्दिया की लाश कहकर पुकारते थे। इसी दौर में एक सनकी कवि और कृषि अर्थशास्त्री उमर विग्नोल से भी नेरुदा की मैत्री हुई। नेरुदा की उमर विग्नोल से मुलाकात ब्यूनस आयर्स में हुई थी। विग्नोल अपनी गाय को रस्सी से बाँधकर पूरे ब्यूनस आयर्स में घूमते थे। बिग्नोल के किताबों के नाम में गाय शब्द अक्सर शामिल रहता था। एक बार बिग्नोल ने एक पहलवान को कुश्ती लड़ने की चुनौती दी। अपनी गाय को अखाड़े के कोने में बाँधकर विग्नोल कुश्तीबाज़ से भिड़ गये। कलकत्ता से आये उस पहलवान ने बिग्नोल को पल भर में पटकनी दे दी थी।
सत्ता समर्थित गोल्डन यूथ वाहिनी नेरुदा और उनके साथियों पर अक्सर हमला करते थे। विडम्बना यह थी कि हमलावरों के बजाय हमलों से आहतों को सताया जाता और उन्हीं पर कार्रवाई करके जेल में भेज दिया जाता। कहना न होगा कि ऐसे हालतों में चिली के सबसे लोकप्रिय कवि डोमिंगो गोमेज़ रोज्जास जेल में पागल हो गए और वहीं उनकी मृत्यु हो गयी। इसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई।

सांत्यागो की पत्रिका में नेरुदा की पहली कविता मिस ओजेस नाम से छपी। नेरुदा उन दिनों खूब कविताएँ लिखा करते थे। घर के बारजे पर बैठकर दोपहर में एक दिन में दो से लेकर चार-पाँच कविताएँ लिख लेते थे। मित्रों के दबाव में 1923 में उनका पहला कविता संग्रह” धुँधलका” छपा। इसे प्रकाशित करने के लिए नेरुदा को अपने पिता से मिली घड़ी गिरवी रखनी पड़ी। यहीं नहीं,अपनी काले रंग की प्रिय शेरवानी बेचनी पड़ी। तब भी उनकी पहली किताब प्रकाशन के लिए रकम पूरी नहीं पड़ रही थी। किताब जिल्दसाज़ी के लिए प्रिंटर के यहाँ पड़ी थी। प्रकाशक पूरी रकम अदा किये बिना किताब की प्रति नेरुदा को देने को तैयार नहीं था। फिर नेरूदा के हितैषी और मशहूर आलोचक एलोन ने प्रकाशक की बकाया रकम अदा की। सूराखों वाले पुराने जूते पहनकर जब नेरुदा कविता की अपनी पहली किताब की प्रतियाँ लेकर प्रकाशन गृह से निकले तो उनकी खुशी का पारावार नहीं था। नेरुदा अपने संस्मरण में लिखते हैं कि जब कवि की पहली किताब आती है तो उसकी स्याही ताज़ा और कागज कुरकुरे होते हैं। ऐसे जादुई और विभोर कर देने वाला क्षण कवि की ज़िन्दगी में एक ही बार आता है।

1924 में नेरुदा के दूसरे संग्रह “बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का गीत” छपते ही उनकी ख्याति और बढ़ गयी। उनकी उम्र अभी केवल 23 साल थी कि 1927 में नेरुदा को रंगून और वर्मा का काउंसिलर बना दिया गया। वह बाद में सीलोन कोलम्बो और सिंगापुर के काउंसिलर बने।
1930 में मारिया अंतोनेता से उनकी शादी के चार साल बाद 1934 में उनकी बेटी हुई। विडंबना यह रही कि अल्पायु में 1942 में उनकी बेटी की निधन हो गया।

स्पेन के जनकवि फेडरिकों गार्सिया लोर्का से नेरुदा का मिलना और उनसे मैत्री नेरुदा के साहित्यिक जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। स्पेन के गृहयुद्ध के दौरान जनकवि लोर्का की हत्या से नेरूदा अत्यंत मर्माहत हो गये। उन्होंने लोर्का की स्मृति में “स्पेन मेरे दिल में” सीरीज़ की कविताएँ लिखीं। पेरिस में लोर्का की रचनाओं पर व्याख्यान दिया। स्पेन के शरणार्थियों के लिए पेरिस में काउंसिलर भी बने।

नेरूदा अत्यंत लोकप्रिय कवि थे। हजारों की संख्या में लोग उनकी कविताएँ सुनने आते थे। स्तालिनग्राद की गीत और अमेरिका,तुम्हारा नाम यूं ही नहीं लेता हूँ जैसी कविताओं के पोस्टर शहर की दीवारों पर दिखते रहते थे।

नेरूदा की कविता में उदासी है और उम्मीद भी। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक बार एक आदमी पेड़ के नीचे मृत मिला था जिसने शायद आत्महत्या की थी। उस मृतक के निकट नेरुदा का कविता संग्रह मिला था। नेरूदा को जब यह पता चला तो उन्होंने संकल्प लिया कि वह अब कभी भी हताशा और नाउम्मीदी की कविताएँ नहीं लिखेंगे।
 
नेरूदा की कविता में प्रकृति इस तरह रची-बसी है कि उसे अलग करने से वह ठूँठ सी वीरान लगने लगेगी। चिली के जंगल और बारिश का काव्यात्मक और निर्मल वर्णन जिस संवेदनशीलता के साथ गद्य में अपने संस्मरणों में करते हैं,उसे पढ़कर कोई भी पाठक मुग्ध होकर उसके सौन्दर्य में डूब सकता है। छायादार पेड़, टहनियों की ओट से शहनाई की तरह गाती चिड़िया, पत्तियों का सैलाब, लाल रोओं वाली मकड़ी, ऊँचे कद के सरपत, कान फैलाए कुकुरमुत्ते, नीबू के रंगवाली तितलियाँ, बर्फ़ के फूल की तरह सफ़ेद कीड़े नेरूदा की आँखों के वृत्त में हमेशा बने रहते हैं। बचपन में सुइयों की तरह घर की छत में सूराख करने वाली तेज़ बरसातें उनके मन पर अमिट छाप छोड़ती हैं। उनकी कविता के अछूते बिम्बों के स्रोत-कुण्ड उन्के बचपन की ही मनमोहक प्रकृति के चित्र हैं।

वे लिखते हैं ,”जिन्होंने चिली के जंगल नहीं देखे,उन्होंने पृथ्वी क्या देखी!"

नेरूदा ने काफ़ी अनुवाद भी किए । रेनर मारिया रिल्के की नोटबुक और उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद फ्रांसीसी से किया। अँग्रेज़ी कवि विलियम ब्लेक की कविताओं के अनुवाद के अलावा उनके शेक्सपियर के नाटक “रोमियो और जूलियट” के किए गए उनके अनुवादों को खूब सराहना मिली।

नेरूदा यात्रा प्रेमी थे। वह भारत दो बार आए । नेरूदा 1929 में भारत की अपनी यात्रा के दौरान कोलकाता की गलियों में भी घूमे। वे गाँधी जी और नेहरू जी मिले भी थे। ’माच्चू-पिच्चू के शिखर’ की रचना उन्होंने उन पर्वतों को देखने के बाद की थी।

नेरूदा को महान चित्रकार पाब्लो पिकासो के साथ अन्तरराष्ट्रीय शान्ति पुरस्कार से नवाज़ा गया। बाद में उन्हें इस पुरस्कार के निर्णायक मण्डल में भी शामिल किया गया। महान चित्रकार पिकासो नेरूदा की कविता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनकी कविता पर चित्र भी बनाया। 1971 में नेरुदा नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किेए गए ।

नेरूदा वामपंथी थे। उन्होंने 1945 में चिली की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ही नहीं ली,बल्कि चिली के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भी बने। हालाँकि अपने दोस्त साल्वाडोर एलेन्दे के चुनाव में खड़े हो जाने के कारण बाद में उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया। एलेन्दे के लिए धुआँधार प्रचार किया और उन्हें विजय दिलाई। नेरूदा फ़्रांस में राजदूत रहे। लेकिन वर्ष 1972 में वह इस पद से इस्तीफ़ा देकर चिली लौट आए।

नेरूदा के वापस लौटने पर सनत्यागो के राष्ट्रीय स्टेडियम में उनका भव्य स्वागत किया गया। चीले में तानाशाह पिनोचेत ने उन्हें घर में नज़रबन्द कर दिया। यह अजीब संयोग है कि अपने मित्र एलेन्दे की मृत्यु के 12 दिन बाद ही 23 सितम्बर 1973 को नेरूदा का सनत्यागो में सन्देहास्पद स्थिति में निधन हो गया।अभी हाल में नेरुदा की संदिग्ध मृत्यु पर जाँच समिति बनाई गई है।