भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लायें फिर सोन दिवस / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कैसे ये दिन आये
लोग रहे
घर के न घाट के
पर्वत भी सिकुड़ गये
नदियाँ भी रेत हुईं
हरी-भरी फसलें भी
लगतीं ज्यों बेंत हुईं
कैसे ये दिन आये
फूल झरे
गंधों को बाँट के
आभासी रिश्तों में
सुधियों की बात कहाँ
हाथों में हाथ लिए
सोंधी सौगात कहाँ
कैसे ये दिन आये
लोग जियें
अपनो को काट के
हमने तो बोये हैं
अमरित के बीज सदा
हरियायें लतिकायें
दुलराये पवन सदा
सपना है लायें फिर
सोन दिवस
दुर्दिन को छाँट के