Last modified on 26 फ़रवरी 2024, at 12:30

ला प्रलय देती नदी की पीर है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

ला प्रलय देती नदी की पीर है।
बाँध का जब टूट जाता धीर है।

रोग सच्चे प्रेम का तुझको लगा,
बे-दवा मरना तेरी तक़दीर है।

देश बेआवाज़ बँटता जा रहा,
बंदरों के हाथ में शमशीर है।

घाव दिल के वक्त भर देता मगर,
धड़कनों के साथ बढ़ती पीर है।

कब तलक फ़ैशन बताओगे इसे,
पाँव में जो लोक के ज़ंजीर है।

फ़्रेम अच्छा है, बदल दो तंत्र पर,
हो गई अश्लील ये तस्वीर है।