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लिखना चाहती हूँ / स्मिता झा
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मैं........
काले पीले कागज की जमीन पर
लिखना चाहती हूँ
धूप खुशबू और बारीश की कविता...........
पर लिख नहीं पाती..........
अव्यक्त ही रह जाते हैं
छटपटाती संवेदनाएँ
वितृष्णाएँ
इच्छाएँ
और वे तमाम सपनें
जो जागती आँखों से देखे गए थे
रात के आखिरी पहर में................
बिलबिलाते अंधेरे के निपट एकांत में
खुद से जूझती हुई
लिखना चाहती हूँ
रोशनी छलछलाती हुई.... सुगंध भरी एक कविता
जिसके अक्षर अक्षर ...........शब्द शब्द
मेरे बिखरे वजूद को
उजाले का अर्थ दे.........
मेरी भीगीं अनुभूतियों को
फलक की गहराई दे......
पर नहीं.........नहीं लिख पाती
ऐसी महकती नूर भरी कविता
जो मेरे भीतर के गीले अँधेरे में
रोशनी के फूल
खिला सके...........!