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लिखूं तो क्या लिखूं / अर्चना अर्चन
Kavita Kosh से
हैं उमड़ते-घुमड़ते शब्द कुछ,
मन की तहों में
कभी निकलते-फिसलते आंखों के रस्ते,
कभी कहकहों में
व्यर्थ जातीं कोशिशें पकड़ने की उन्हें
करूं, तो क्या करूं
लिखूं तो क्या लिखूं
ये घनेरे-अंधेरे कब मिटेंगे
झिलमिलाकर, खिलखिलाकर
दीप सारे जल उठेंगे
अनबुझी ये प्यास लेकर
रौशनी की आस लेकर
खुद ही मैं कब तक दहूँ
लिखूं तो क्या लिखूं।