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लील रहा है अन्धकार / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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सिर के ऊपर लटका
बेजार पंखा
लगता है
अब गिरा...तब गिरा।

उसकी नरम उसाँसें बन्द होने को हैं
धुनी हुई रूई के फ़ाहों-सी उड़ती हैं
टूटी-फूटी...कविताएँ
मूर्तियाँ
तस्वीरें।

भौंहों के बीच रह-रहकर
चिलकने लगते हैं
सहारा और गोबी के रेगिस्तान।

जब कभी बाहर तकता हूँ
तो पाता हूँ
फुटपाथ पर
बैसाखी से टिका हुआ वक़्त।

और इधर मेरे इर्द-गिर्द
कमरों में पसरा अँधेरा
सबकुछ निगलता जा रहा है-
मेज़ कुर्सी आईना
किताबों की आलमारी
जूते, कपड़े
और दूसरी तमाम परेशानियाँ
हलकी और भारी-

देखो तो सही
अँधेरा लील रहा है हमारा सबकुछ
हमारा भूत और भविष्य
साथ ही, देश को चाहने का गौरव।