भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लुकमींचणी - दो / मदन गोपाल लढ़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लुकमींचणी रो खेल
कठै खतम हुयो है हाल
बरसां पछै ई
थूं लुकै
म्हैं सोधूं
बिंयां रो बिंयां।

थारा थरप्योडा नेम
थूं ई तौडे
बास री मरजाद
कोनी मानै
म्हारै मूंढै सूं
हेस-पेस निकळयां पैलां
थप्पी कर परो
एक बीजी डांई मांड देवै।

बाळपणै दांई
जिंदगाणी में
कद तांई
लुकैला थूं इण भांत ?
कद तांई
म्हैं सोधूंला थनै
बावळो-सो।

कद तांई
चालैला ओ खेल ?
कद तांई
थूं पिदावैला म्हनैं
रोगस रै पाण ??