लुटियन की दिल्ली में बांसुरी की धुन / कुमार कृष्ण
पहाड़ का कवि जब पहुँचता है हस्तिनापुर
वह भूल जाता है अपने पुराने पहाड़
पहाड़ का कवि जब पहुँचता है हस्तिनापुर
वह ढूंढ़ता है सर छुपाने की सबसे महफ़ूज जगह
जैसे ढूंढ़ते हैं हम सब
वह ढूंढ़ता है बड़ी-बड़ी अलमारियाँ
छुपाए जा सकें जहाँ सपनें
छुपाए जा सकें यादों के तकिये
वह ढूंढ़ता है एक चूल्हा एक आग
वह ढूंढ़ता है एक मज़बूत दरवाज़ा
छुपा सके जिसके अन्दर-
अपनी उम्मीद, अपना विश्वास, अपनी हिम्मत
अपना परिवार अपना प्यार
मना सके छोटी-छोटी खुशियों का उत्सव
मेरे दोस्त ने भी यही किया
जब वह एक दिन अचानक गायब हो गया
मैं सोचता रहा-
वह लौट आएगा एक दिन
अपने पुराने पहाड़ों के पास
लौट आएगा ठहाकों और शरारतों के पास
लौट आएगा बर्फीले मौसम के पास
पर उसने तो वरण कर ली थी धूप
वरण कर ली थी गर्म लोहे वाली दोपहर
कर लिया था वरण अजनबी हस्तिनापुर
वरण कर ली थी-
डरावने सपनों की खूबसूरत दुनिया
उसके हस्तिनापुर को कहते हैं लोग लुटियन की दिल्ली
वह जानता है अच्छी तरह-
वह है राजा-रानी की दिल्ली
बादशाहों-हुक्मरानों की दिल्ली
यहाँ है एक इन्द्रपुरी एक त्रिलोकपुरी
एक चाणक्यपुरी भी है वहाँ
लुटियन की दिल्ली में-
उसे नज़र आती है जब द्वारिका
पहाड़ का कवि लगता है ढूंढ़ने बांसुरी की धुन
ढूंढ़ने लगता है फाँक भर प्यार
पाव भर विश्वास, छटांक भर उम्मीद
जब नहीं मिलता कुछ भी-
परायी ज़मीन पराये नगर में
सो जाता है वह चुपचाप
अपनी बाहों के तकिये पर
झपकीभर नींद में आता है नज़र श्रीनगर
आते हैं नज़र दादा-परदादा के पुश्तैनी घर
चला जाता है वह धरऔर घर की लम्बी गुफा में
अचानक चले आते हैं सपनें में उसके दादा
धीरे से थपथपाते हैं पीठ
कहते हैं उसके कानों में-
सबसे बड़ा जुर्म है उसका कश्मीरी पंडित होना
सोचता है वह बार-बार-
उसने क्यों सीखी बचपन की वर्णमाला
क्यों सीखा राष्ट्रगान
क्यों बजाई मन्दिर और स्कूल की घण्टी एक साथ
क्यों लगाया माथे पर केसर का तिलक
क्यों किया अपने घर से प्यार
क्यों बना वह सतीश घर
वह सोचता है बार-बार-
यदि हो पुनर्जन्म
तो वह हो इसी धरती पर
बने वह बार-बार सतीश घर
एक बात याद रखना मेरे दोस्त-
पहचान लेना मुझे भी अगली बार
मैं आऊंगा बंद गले का कोट पहनकर
कविता कि बेशुमार किताबों के साथ
कुमार कृष्ण बन कर
हम मिलेंगे फिर उसी जगह-
जहाँ मिले थे पहली बार
करेंगे एक बार फिर कल की बात
लिखेंगे गाँव का बीजगणित
करेंगे बात-
तीन शेरों के पंजों में जकड़े देश पर
तुम लुटियन की दिल्ली में मत भूल जाना
शब्दों का राग
यहीं-कहीं लिखते थे ग़ालिब ग़ज़लें
रात में हारमोनियम बजाते हैं आज-
मित्र उदय प्रकाश।