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लूंठै रै हाथ / ओम पुरोहित कागद
Kavita Kosh से
सागर, सागर है
अर
थार, थार !
इणी खातर
बूंद-बूंद स्यूं
सागर‘ई भर तो आयो है
थार नीं ।
बूंद-बूंद स्यूं
जे भरीजतो
तो मरूधरा होंवती
लूंठो सागर
हिन्द महासागर ज्यूं
हबोळा खंावती ।
जे बूंद-बूंद स्यूं रीत तो
तो सागर होंवतो
खाली ऊंड़ो दरड़ो ।
क्यूं कै आज तक जारी है
थारै मांय
पाणी रो बरसणो
अर सागर मांय स्यूं
पाणी री निकळनो
पण
अै सारी बाता विचारण री है
करणी री नीं
क्यूं कै करणी
थारै म्हारै हाथ नीं है
अर जकै रै हाथ है
बण
आ‘ई करनी है
क्यूंकै
लूंठै रै हाथ तलवार
अर निबळै रै पल्लै हार
आखी जूण रैणी है