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लेखक का कमरा / अच्युतानंद मिश्र

कभी देखा है तुमने लेखक का कमरा ?

दिन भर धूप में घूम
शाम को जब लौटता है लेखक
तो अँधेरी सड़कों को
बहुत टटोल कर चलता है
दिन भर की भटकन
एक दुःख बनकर बैठ जाती है
उसके कंधे पर

लेखक का कमरा
अभी खुला है
धूप नहीं
चाँद की हल्की रोशनी
अभी प्रवेश कर रही है
कुछ रोशनी उसके भीतर भी है
वैसे अँधेरा बहुत है

एक छोटे से घड़े में
रखा हुआ है पानी
घड़े को देखकर
याद आती है माँ
घड़े के शीतल जल की तरह
माँ का हाथ माथे पर
और लेखक तपने लगता है बुखार से
चारपाई से कुर्सी के बीच का
फ़ासला कुछ क़दमों का
टहल रहा है लेखक

याद आती है छुटकी
नहीं, कल जो बस की खिड़की से बाहर
दिखी थी लड़की
छुटकी धीरे-धीरे लड़की में तब्दील हो जाती है

लेखक बैठता है घड़े के पास
मन ही मन पूछता है
माँ कहाँ है, छुटकी ?
उसे तो चावल फटकना था
क्यों चली गई पड़ोस में

लेखक के कमरे में
एक हवा का झोंका आता है
पिता की तरह
बैठ जाता है चारपाई पर
कहने लगता है
कुछ कमाया करो
पर लिखकर कमाया तो नहीं जा सकता
जानते हैं पिता
और पिता हवा बनकर ही लौट जाते हैं

लेखक के कमरे के बाहर
नाले में पानी के बहने की हल्की आवाज़
जैसे रो रही हो पत्नी
दरवाज़ा खोलकर झाँकता है लेखक
बाहर का अँधेरा जैसे खड़ा हो दरवाज़े पर
और आना चाहता हो भीतर
लेखक बंद कर लेता है दरवाज़ा
पत्नी को कहता है
तुम मत रोओ
कल से नहीं लिखूँगा
जाऊँगा काम पर
नहीं लिखूँगा कि दुःख है बहुत
नहीं लिखूँगा कि फूट-फूट कर रोती है
एक बुढ़िया
आज लिखने दो कि
अभी थोड़ी आग,
थोड़ी स्याही
थोड़ी चलने की ताक़त बची हुई है
अपने झोले से निकालकर काग़ज़
लेखक बैठ जाता है कुर्सी पर
कमरे में घड़ा रखा हुआ है
हवा का एक झोंका, फिर आकर बैठ गया है
चारपाई पर

अबकी नाले से पानी के बहने की
तेज़ आवाज़ आती है
जैसे खिलखिला रहा हो कोई !