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लेखन का आनंद / विस्वावा शिम्बोर्स्का / श्रीविलास सिंह

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क्यों यह लिखी हुई फाख्ता विचरती है इन लिखे हुए वनों में?
पीने को लिखित जल उस झरने से जिस की सतह जिरोक्स कर लेगी उसकी कोमल चोंच को?
वह क्यों उठाती है अपना सिर, क्या उसने सुना कुछ?
सत्य से उधार लिए चार दुबले पैरों पर चलती
वह कर देती है अपने कान मेरी उंगलियों के पास।
 'मौन' -यह शब्द भी खड़कता है पन्ने के आर-पार
और छोड़ देता है उस टहनी को
जो उग आयी है शब्द "वृक्ष" से।
प्रतीक्षारत, कूद पड़ने को तैयार पन्ने पर।
अक्षर हैं नहीं किसी काम के,
और कारकों की पकड़ इतनी आज्ञाकारी कि वे कभी न होने देंगे मुक्त।
स्याही की हर बूंद में है शिकारियों की पर्याप्त संख्या, तैयार अपने निशानों के पीछे अपनी सिकुड़ी हुई आँखों के साथ,
किसी पल ढलुवाँ क़लम से आच्छादित कर देने को तैयार,
घेर लेने को फाख्ता को और धीरे से साधने को निशाना अपनी बंदूक का।
वे भूल गए हैं कि जो है यहाँ वह नहीं है जीवन।
प्राप्त करो, दूसरे कानून, काला या सफ़ेद।
मैं कहती हूँ लगेगा पलक झपकने भर का समय और यदि मैं चाहूँ, हो जाएगा विभक्त नन्ही अनंतताओं में,
बीच उड़ान में रुकी हुई गोलियों से भरा।
कुछ भी नहीं होगा घटित जब तक मैं कहूँ न ऐसा होने को।
एक पत्ती भी नहीं गिरेगी, बिना मेरी कृपा के,
मुड़ेगी नहीं घास की एक पत्ती तक उन खुरों के नीचे रुकने पर।
तो क्या कहीं है एक दुनिया
जिसके भाग्य पर है मेरा एकछत्र अधिकार?
एक अस्तित्व हो जाता है अंतहीन मेरी इच्छा मात्र से?
लेखन का आनंद।
सुरक्षित बचा लेने की शक्ति।
एक मरणशील हाथ का प्रतिशोध।