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लै लै मोहन ,चंदा लै / सूरदास

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राग धनाश्री

लै लै मोहन ,चंदा लै ।
कमल-नैन! बलि जाउँ सुचित ह्वै, नीचैं नैकु चितै ॥
जा कारन तैं सुनि सुत सुंदर, कीन्ही इती अरै ।
सोइ सुधाकर देखि कन्हैया, भाजन माहिं परै ॥
नभ तैं निकट आनि राख्यौ है, जल-पुट जतन जुगै ।
लै अपने कर काढ़ि चंद कौं, जो भावै सो कै ॥
गगन-मँडल तैं गहि आन्यौ है, पंछी एक पठै ।
सूरदास प्रभु इती बात कौं कत मेरौ लाल हठै ॥

भावार्थ :-- (माता कहती हैं -) `लो! मोहन, चंद्रमा को लो ! कमललोचन! मैं तुमपर बलिहारी जाती हूँ, तनिक नीचे देखो तो । मेरे सुन्दर लाल! सुनो--जिसके लिये तुमने इतनी हठ की, वही चन्द्रमा बर्तन में पड़ा है; कन्हाई ! इसे देखो । इसे उपाय करके आकाश से ; लाकर तुम्हारे पास पानी के बर्तन में सँभालकर रख दिया है; अब तुम अपने हाथ से चन्द्रमा को निकाल लो और जो इच्छा हो, इसका करो । एक पक्षी को भेज कर इसे आकाश से मँगाया है ।' सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी से मैया कह रही हैं-`मेरे लाल! इतनी-सी बात के लिये क्यों हठ कर रहे हो ?'