लॉक डाउन और घूंघट के पार का सूरज / मृदुला सिंह
लॉक डाउन का असर नहीं होता
उन तमाम औरतों पर
जिन्होंने कभी नहीं लांघी घर की चौहद्दी
इधर हमे घुटन हो रही है
कुछ ही दिनों के बंधन से
जाएँ कहीं न भले
पर सब खुला होना चाहिए
कुछ औरतें कभी कह न सकी
उनका भी घुटता रहा है जी
यूँ बरस-बरस की अंतहीन घरबन्दी में
हमने देखा है ऐसी औरतों को
अपनी दादियों चाचियों
और उन जैसी न जाने
कितनी औरतों में
उनकी संजीदा आंखों में तड़पती रही है आजादी
वे चुपके से झांक आया करती थीं
बाहर की सांवली उन्मुक्त हवा को
बंद किवाड़ की सुराखों से देख लेती थीं वह दुनिया
जहाँ बारिश की धुन पर पेड़ झूमा करते हैं
हमने देखा था कई बार
मेले का सपना आता था उन्हें
उनकी अधखुली पलकों पर
तांत से बने झूमरों को उतरते
उन झूमरों में लटकते रंगीन फुदनो के संग
डोलती रहती थी वे
तीस जनों की रोटियाँ सेंकते
घूंघट के कोने को उंगलियों में फंसा कर बना लेती थीं
झरोखा और बतियाया करती थीं सूरज से
कहतीं दो हमे भी कभी रोशनी का सोता
कि अब जी ऊब गया है अँधेरा बुहारते
जुवान बंदी में कभी कह न सकीं जो
वे सारी अभिव्यक्तियाँ दर्ज हैं
उस पुराने घर के कोने-कोने में
जहाँ कोहबर कोहडर दीवारों रुमालों
और न जाने कितने कच्चे कैनवासों पर
उकेरा था उन्होंने
वे केवल चित्र नहीं हैं
वे उन औरतों के मन के उदास मौसम हैं
उनकी कला में परत दर परत
दबी हैं न जाने कितनी अनकही कहानियाँ
लालित्य में रची मन की पीड़ाएँ उनका सर्जन हैं
जानना हो उनके मन का तो
तोड़ो ताले
बरसों पुरानी उनकी जंग लगी संदूको के
मिलेंगे उसमे थोड़े पहाड़ी बादल के टुकड़े
खुला-सा आकाश
थोड़ी धूप
थोड़ी हवा
और कुछ सोन चिड़िया के सुनहरे पंख
जिन पर सदियों का लॉकडाउन है