लोकचित्र / कुबेरनाथ राय
(१)
मैं था एक कीर्तिहीन पटुआ
मैंने उदासी का कोरा अशुभ पट चुना
तुमने हल्दी गोरोचन प्रस्तुत कर कहा
"आँको निज तर्जनी से, तमाम अतीत को
जिसका उपसंहार यह कोरा पट है रहा।"
(२)
मैं था एक गरीब मोटिया मजूर
तुमने मेरे ही दुर्बल कंधों को नायकों का
सबल बृषभकंध मान रख दिया एक
दुख का दुर्वह भारी जुआ, और मैं
अकेले हाँफता-हाँफता दुर्गम पथ चढ़ा
कंधे व्यथा से फटते रहे, पर लोगों ने कहा :
"देखो यह सिद्धहस्त सिद्धपग कारुनट
यह कितना अच्छा अभिनय कर लेता है।"
(३)
मैं था एक दुर्बल कण्ठ-कीर्तनियाँ
स्वयं बिकने को तैयार रामनामी ओढ़ बैठा था
इस मुट्ठी उदार पुण्य पण्यागार में
किन्तु तुमने कण्ठ में भर दिया बज्रावेग
मौन असंभव हुआ, कंठ अब फटा, अब फटा;
मैं अवश चिल्ला उठा; और लोगों ने कहाः
"यह तो काल की अधरलग्न तर्जनी से भी
वेपरवाह उत्तर पुरुष का प्रवक्ता है।"
(४)
ओ मेरी सिसृक्षा के सतीर्थ लोकचित्र
ये भलेमानस ये लोग जानते नहीं कि
मेरा सबकुछ प्रवंचना है, फांकी है, लाचारी है
जो सप्त है वह है मेरी अवशता, दुर्बलता और
आर्तनाद!
तर्जनी मेरी थी, कंधे मेरे थे, कंठ मेरा था
पर मणिबन्ध में, पांजर में सुषुम्नमूल में
सक्रिय संवेग, वह तुम्हारा था, देह हमारी थी;
निरन्तर जूझनेवाला मन वह तुम्हारा था
ओ मेरे निप्त सहचर!
लोकचित्र।