भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोकल-वोकल / कौशल किशोर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी छोटी हो गयी है हमारी दुनिया
हम तो चहचहाना भी भूल गये हैं

भांय-भांय, सांय-सांय करती काली रात
निर्जन, डरावनी
पत्ता भी खड़के तो तन-मन सिहर उठता है

कोई नहीं आता, कोई नहीं जाता
जिस अकेलेपन को हिकारत से देखा
दूर छिटकाता रहा अपने से
वही इन दिनों का सबसे सच्चा साथी है

मोबाइल है, इससे बतिया सकता हूँ
पर पतिया नहीं सकता
नाउम्मीदी का यह यंत्र भर है
जिसे हम उम्मीद की तरह सीने से चिपकाये हैं

कहते हैं ग्लोबल हो गयी है दुनिया
पर इसमें अपना लोकल भी नहीं रहा

तुर्रा यह कि
अब इसी लोकल को वोकल बनाने की बात हो रही है।