भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोक परंपराएं / शिव कुशवाहा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लोक परंपराएँ
पैठ जाती हैं गहरे तक
समाज में
चली आती हुई परंपरा और रीति रिवाज
नहीं मिटते आसानी से
लोक में जीवित रहते हैं वे
किसी न किसी कहानी के रूप में,

चलती रहती हैं पात्रों की
एक उपेक्षित शृंखला
पौराणिक या ऐतिहासिक
संसार पटल पर हो जाते हैं अमर
जैसे कोई नायक
पा जाता है अमरता का पद
उसी तरह लोक में
अमर हो जाते हैं कुछ अविजित नायक
चलता रहता है उनका नाम
कुछ बदले हुए नाम के साथ।

लोक परम्पराओं के
नहीं होते एतिहासिक दस्तावेज
पीढ़ी दर पीढ़ी
समय के साथ-साथ
चलती हैं आख्यानों में उनकी दास्तान
सुने जाते हैं उनके गीत
गाई जाती हैं उनकी प्रशस्तियाँ
हर साल जीवित हो
उठते है लोक की चेतना में।

लोक और उसकी परंपराएँ
जुड़ी रहती हैं
जन सामान्य के भावों से
हम कितना भी नकार लें
लेकिन लोक और उसकी परंपराएँ
रहेंगी जीवित
समाज के आखिरी आदमी के
समाप्त होने तक...