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लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं / साहिर लुधियानवी

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लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रुह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं

रुह क्या होती है इससे उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं

रुह मर जाती है तो ये जिस्म है चलती हुई लाश
इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज

लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे
वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज

जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें
ये अमल हम में है बे-इल्म परिन्दों में नहीं

हम जो इनसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं
हमसा वहशी कोई जंगल के दरिन्दों में नहीं

इक बुझी रुह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए
सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ

मैं न ज़िन्दा हूँ कि मरने का सहारा ढूँढ़ूँ
और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ

कौन बतलाएगा मुझ को किसे जा कर पूछूँ
ज़िन्दगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक

कब तलक आँख न खोलेगा ज़माने का ज़मीर
ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक।