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लोग जो गुनगुनाते रहे / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
लोग जो गुनगुनाते रहे
मन ही मन सुर में गाते रहे ।
अनवरत मीठी मुस्कान से
फूल सबको लुभाते रहे ।
ख़ुद भी उड़ते हैं आकाश में
जो पतंगे उड़ाते रहे ।
सिर मुड़ाते ही ओले पड़े
लोग सिर को बचाते रहे ।
मेघ बनकर समंदर सदा
मीठे जल तक भी आते रहे ।
काला धन कुछ रुका देश में
कुछ विदेशों में 'खाते' रहे ।
ऊँचे महलों के रक्षा-कवच
सबसे पहले अहाते रहे !