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लोग शीशे के महल में / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
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बड़े भोले
लोग शीशे के महल में
छिप रहे हैं पत्थरों से
बात वैसे है पुरानी
वही पिछली आदतें हैं
गुंबजों में कैद हैं दिन
और जंगल के पते हैं
टूटती हैं टहनियाँ
आवाज़ आती है घरों से
मुँह-छिपाये धूप लौटी
काँच की बारादरी से
हाल सडकें पूछतीं हैं
भोर की घायल परी से
और
टूटे शंख की धुन आ रही है
मन्दिरों से