भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोधा / बैगा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

रीर नाओ रीना माय मोरे रीर नाओ रीना की। 2
पहली मैं गायों माय मोरे माय धरती के सेवा
दूसरा में गायों माय मोरे-ठाकुर देव का सेवा
तीसरा में गायों माय मोरे-खेरो मायक सेवा
चौथा में गायों माय मोरे-चाँद सूरज की सेवा
पाचेमा गायों मोरे-चार खूटा की देवता
झूर-झूर माय मोरे बैहर बहय 2
सुर सुर माय मोरे चले पुरवेया 2
घट-घट माय मोरे बदल सिरजय 2
गरजय घूमड़य माय मोरे कारी बदलिया 2
चारोने खूटे माय मोरे कारी बदलिया 2
बरसय रातय माय मोरे मैगो बरसय 2
भर गय भरिगय माय मोरे ताला डोबरिया 2
मारे हिलोर माय मोरे ताला, डोबरिया 2
फुट गय फूटी गय माय मोरे ताला डोबरिया
बह गय वही गय माय मोरे ताला डोबरिया
एक धारो बहय माय मारे डूडन के धारो 2
एक धारो बहय माय मारे रक्तिनको धारो 2
एक धरो बहय माय मारे गोबरिन को घारो 2
एक धारो बहय माय मारे चिखलिन को धारो 2
एक धारो बहय माय मोरे चारों छोवरासी 2
एक धारो बहय माय मोरे सातों ही धारो 2
बह गय बहिगय माय मोरे धरती पातालों 2
सातो ही समदुर माय मोर मारे हिलोरा 2
सातो ही समदुर माय मोर कारी औपटपर 2
कारी औपटपर माय मोरे बरीसा पीपर
बरीस पीपर माय मोरे बारोही खूदर
ऊ हैय जनमय माय मोरे बारा भाई लोढ़ा 2
केखर पाघू जनमय माय मोरे दूध कोडी लोढ़ा
ओखर पाछू जनमय माय मोरे रक्ति बीरों लोधा।
ऊ हैय जनमय माय मोरे गोबरी बीरों लोधा 2
ऊहैय जनमय माय मोरे चिखली बीरों लोधा 2
ओखर पाछू जनमय माय मोरे हडकोड़ी लोधा 2
ऊहैय जनमय माय मोरे चिलोचिलो लोधा 2
तेखर पाछू जनमय माय मोरे नोनी लोधा 2
कहर कहर रोथय माय मोरे नीनी औवढेरिन
काभूतों रोथय माय मोरे काभूतों रोधय 2
छाती के मारे सलगय माय मोरे बारा भाई लोधा
टेंघरा के मारे ढूकय माय मोरे बारा भाई लोधा
डेखन लागे माय मोरे बारा भाई लोधा
 कहा के भूतो होतिस माय मोरे नानी औवढेरिन
उठे के बहीलिन माय मोरे बारा भाई लोधा
धामेय रूड़ावैय माय मोरे पौनैय पूरावैय
मनमाना सोचेय माय मोरे बारा भाई लोधा
का खाना खाबों माय मोरे का पानी पीबो
सोने के धनुष बाण माय मोरे सोने पनीच
सोने के सेरैय माय मोरे सोने बिसाड़ी
होय गईन है तैयारी माय मोरे बारा भाई लोधा
पूछन लागे माय मोरे नोनी औवढेरिन
तुम कहाँ जाथो माय मोरे बारा भाई लोधा
हम वनवास जाथन माय मोरे बारा भाई लोधा
तै इही रहबे माय मोरे नेनी औवढेरिन
रंगन लागे माय मोरे बारा भाई लोधा
आगू के पैईया माय मोरि पलंग देसारिन कि माय मोरे लूहंग औरेगय न
पहूँचन लागे माय मोरे भौवरा पहार
लगयन घटनिया माय मोरे बारा भाई लोधा
खेदत लयजैय माय मोरे चिलो-चिलो लोधा
एकेला मोरे माय मोरे बारा गिरावय
सरैय के कावर माय मोरे धनहू के टेका
लौंटन लागे माय मोरे बारा भाई लोधा
आगू के पैया माय मोरे लूहंगी रेगय ना
पहूँचने लागे माय मोरे बारा भाई लोधा
ऊतकी देखय माय मोरे नोनी औवढेरिन
छाय छूई खोजे माय मोरे नोनी औवढेरिन
कहाँ है दीया माय मोरे कहाँ बाती
सोने के दिया माया मोरे सोने की बाती
सोने गड़ुवा माया मोरे सोने पिडोली
गोड़ धवाथय माय मोरे नन औवढेरिन
मड़ावन लागे मायमोरे बारा जीवादे
रीठा लकड़ी कबाड़े माय मोरे बारा भाई लोधा
भूजन लागे माय मोरे बारा जीवादे
काटन लागे माय मोरे बारा भाई लोधा
मूड़े के बाड़ा माय मोरे रूण्ड के खड़ही रक्तिन के धार
मूड फोड़ गूदी माय मोरे आँख फोड़ पानी
आलो का भोजन माय मोरे सूखा दतून

शब्दार्थ – चार खूटा= चार दिशा, बैहर=हवा, सिरजय=बनना, मेगोम=मेघ/बादल, दबरिया=डबरा, ताला=तालाब, रक्तिन=खून , गोबरिन=गोबर, चिखलिन=कीचड़, बरीसा=वृक्ष, पीपर=पीपल, बारोही=धूल उड़ना, दूध कोड़ी=दूध से उत्पन्न, रक्तवीरो=रक्त भाई, सलगय=सरकना, टेंघरा=घूटने चलना, धनहू=धनुष, पनीच=प्रत्यंचा, बिसाड़ी=बाण। वनवास=जंगल, लूहगी=लंबे दाग, घटनिया=धनुष पर बाण चढ़ाना, चिलो=जरख, रीठा=लकड़ी, मूडे=सिर, सूखा=दतून= नाश्ता, आलोकर=ताजा खाया, जीवादे=जानवर, पिडोली=पीढ़ा, धवावय=धोये, गड्डवा=कलश/लोगा, मड़ावन=रखना।

सबसे पहले हम सबको आधार देने वाले धरती माता के गुण गाते हैं। उसकी वंदना करते हैं। पूजा करते हैं। इसके बाद गाँव के रक्षक देवता ठाकुरदेव का सुमिरन करते हैं। तीसरे क्रम में हम गाँव की सीमा की रक्षक देवी खैर माई का स्मरण करते है। चौथे क्रम में सबको प्रकाश देने वाले सूरज और चाँद की वंदना करते हैं। पाँचवे क्रम में चारों दिशाओं के देवताओं के गुणगान करते हैं, क्योंकि वे ही पृथ्वी के रक्षक प्रहरी हैं।

हे माँ! धीरे-धीरे ठंडी हवा बहने लगी है। झूर-झूर हवा धीरे-धीरे बहती है, लेकिन वह तन बदन को लगकर थोड़ी झूर-झुरी यानि कपकपी पैदा करती है। इसके पश्चात माघ पूस में ‘सुर-सुर’ करके पूर्व की ओर से चलने वाली ‘पुरवैया’ हवा चलने लगती है। पुरवैया की ‘सुर-सुर’ हवा शीतल तो होती है, लेकिन तन बदन को छूकर वह एक प्रकार का आनंद उल्लास पैदा करती है। इसलिए गीतों में प्राय: ‘पवन पुरवैया’ कहावत का अधिक उपयोग किया जाता है। चाहे जंजातीय गीत हो या लोक बोलयों के गीत हो।

हे माँ! आकाश के कोन-कोने से बादल उठने लगे हैं। काली बदलियाँ इधर-उधर से उमड़-घूमड़ रही है। गरज-तरज रही है। चारों दिशाओ में बिजलियाँ कड़क रही है। छमक रहीं हैं। पानी से भरे काले-काले बादल बरसने लगे है। सारे नदी, तालाब, पोखर पाने से लबालब हो गये है, वे हिलोरें ले रहे है। छोटे-छोटे पोखरों और डबरों ने अपनी सीमा तोड़ दी हैं। कुछ ताल-डबरे नदी की तरह ऊपर से बहने लगे हैं। वर्षा ऐसी हो रही है, जैसे बूँदों की लड़ियाँ टूटती नहीं है। बूँदों की जल धारा ही बन गई है। एक यह बूँदों की धारा है, जो पृथ्वी को तृप्त करती है, दूसरी तरफ शरीर में रक्त की धारा है, जो निरंतर बहकर मनुष्य को जीवन और जीवंतता प्रदान करती है। एक धारा गोबर-कीचड़ की है।

एक धारा ऐसी है, जो पूरी सृष्टि की है। एक धारा ऐसी भी है, जो धरती से पाताल तक जाती है। कई धाराओं से मिलकर पृथ्वी पर सात बड़ी जल धाराएँ बनी। जिन्हें सात समुंदरों के नाम से जाना जाता है, जिसमें अथाह जलराशि हिलोरे लेती है। सातों समुद्रों के मध्य धरती स्थित है। धरती पर एक काला पहाड़ (पत्थर) है। जिस पर पेड़-पौधे वनस्पतियाँ फैली हैं। उस काले पहाड़ में एक पीपल का वृक्ष भी है। उस पीपल से धूल मिट्टी से भरी कुंवारी धरती पर बारह भाई लोधियाओ ने जन्म लिया। इसके पश्चात दूध की धारा से निकले दूधिया लोधा आये। इनके बाद रक्त की धारा से उपजे रक्त भाई लोधा। फिर वहीं गोबर से पैदा हुए गोबरिला भाई लोधा। फिर कीचड़ से चिखली भाई लोधा। उसके बाद हड्डियों से उत्पन्न हड़कोडी भाई लोधा आये। चिलो चिली से चिलो चिली भाई लोधा। इनकी देखभाल के लिये कोई नहीं था। इनके बाद एक लड़की ‘अवढेरिन देवी’ पैदा हुई, जो पैदा होते ही ज़ोर-ज़ोर रोने लगी, जो ढसक-ढसक कर रोती ही रही।

इधर बारह भाई लोधा छाती के बल खिसकने लगे। धीरे-धीरे घूटने के बल चलने लगे। कुछ दिन बाद बारह बाई लोढ़ा पाँव-पाँव चलने लगे। घर आँगन में दौड़ने लगे। वे चारों ओर देखने-भालने लगे। वे बड़े हो गये,
बोलने लगे। वे पूछने लगे- अरे छोटी लड़की! तुझे क्या हो गया, जो तू रोये जा रही है।

उस रोती हुई बहन को बारह भाई लोधा गोद में उठाकर समझाने लगे। उसे सूर्य के प्रकाश में। (घामेय) घुमाया। हवा में (पौनैय) झुलाया। उन्होने बहन को बहला लिया। वे बारह बाई लोढ़ा अब अपने मन-मन में सोचने लगे। हम क्या खायेंगे और क्या पीयेंगे। इसकी खोज में वे निकाल पड़े।

उन्होने अपने हाथ में धनुष बाण ले लिया। उनके हाथ में सोने का धनुष है और उसकी प्रत्यंचा भी सोने की है।, सोने का तरकश और उसमें सोने के ही बाण हैं। इस तरह बारह भाई लोधाओं ने पूरी तैयारी योद्धा जैसी कर ली। फिर छोटी बहन औवढेरिन देवी पूछती है- हे बारह भाई लोधियों! तुम कहाँ जा रहे हो। भाइयों ने कहा-बहन! हम जंगल में खाने-पीने की खोज में जा रहे है। हमारी छोटी बहन तुम यहीं रहना।

यह कहकर बारह भाई लोढ़ा जंगल की तरफ जाने लगे। एक कदम चले, फिर दो कदम और फिर लम्बे-लम्बे डग भरते हुए जंगल में ओझल हो गए। चलते-चलते वे भँवरा पहाड़ के किनारे पहुँच गये। अब वे अपना धनुष निकालकर प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाने लगे। शिकार करने लगे। वे सब भाई एक जंगली सूअर का पीछा करने लगे। खदेड़ते-खदेड़ते उस सूअर का आखिर शिकार कर ही लिया। सरई पेड़ की डाल की उन भाइयों ने एक कावड़ बनाई और उस पर शिकार को धनुष के सहारे टांग लिया। इसके साथ ही हिरण, चूहे, चिड़िया आदि का भी शिकार किया। शिकार करने के बाद वे बारह भाई जंगल से वापस लौटने लगे। वे सब एक-एक पैर बढ़ाते हुए एक के पीछे एक चलते जा रहे हैं। चलते-चलते वे जहां बहन को छोड़कर गए थे। वहाँ पहुँचने लगे। बहन ने भाइयों को दूर से देखा तो वह पेड़ की छाया ढूँढ़ने लगी और ढूँढकर उसे साफ करने लगी।

वह उजाला करने के लिए दिया और बत्ती ढूँढ़ने लगी। कहने लगी- दीया कहाँ है और कहाँ बत्ती? उसे पता लगा की मेरे पास ही सोने का दीया है और सोने की बत्ती है। दीये में तेल डाल उसमें बत्ती लगा प्रकाश करने लगी। अरे! मेरे पास तो भाइयों को बैठाने के लिये सोने के पीढ़े भी हैं। पैर धुलाने के लिये सोने का कलश (गड़ू) लोटा भी है।

बारह भाई लोढ़ा वहाँ बहन के समीप पहुँच गए। बहन कलश में पानी भरकर उनके पैर धूलाने लगी, फिर भाइयों ने शिकार को एक जगह रख दिया। अब बारह भाई लोधा लकड़ी जमाने लगे। उसे जला दिया और उसमें शिकार को भूँजने लगे। भूँजने के बाद शिकार को साफ-सुफ करने लगे। काटने-पीटने लगे। जानवर के सिर को अलग कर दिया। धड़ के भूँजे माँस के टुकड़े-टुकड़े कर लिये। रक्त को साफ कर लिया। सिर को तोड़कर उसका गूदा निकाल लिया, आँख का पानी मार दिया यानि आँखे निकालकर अलग रख दी। पहले साथ में चलने वाले देवता को भोग लगाया। फिर बारह भाई लोढ़ा ने बहन अवढेरिन देवी सहित मिलकर भोजन किया। जो माँस बचा, उसे सूखा लिया, उसे सुबह के दतून यानि नाश्ते के लिये रख लिया। गीत में प्रारम्भिक मानव की शिकार कथा का वर्णन अत्यंत सजीव और आदिमता के साथ हुआ है।