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लोहांगी / सुरेश सलिल

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यक्षिणियों के इस देश से मैं जा रहा हूँ, लोहांगी,
लो, सम्भालो यह अपनी अकूत रूपराशि!
तुम्हारे दर्पण में मैं चांद का वह
टेढ़ा मुँह देखना चाहता था-
देखना चाहता था कि प्रियदर्शी की प्रिया,
उस वाणिक-कन्या ने
कौषेय कैसे धारण किया,
कैसे उतारने दी उसने अपनी अनमोल केशराशि?
किन्तु जानता हूँ, लोहांगी,
कि तुम्हारा सनातन मौन टूटेगा नहीं
और तुम्हारा वह दर्पण
नील यक्षिणियों ने अपनी मंजूषा में क़ैद कर रखा है।
इसीलिए,
मैं जा रहा हूँ यक्षिणियों के इस देश से, लोहांगी,
लो, सम्भालो यह अपनी अकूत रूपराशि!