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लोहार / राकेश कुमार पटेल
Kavita Kosh से
फूस की मामूली सी झोपड़ी
मिटटी की कच्ची भीत
हांफती हुई सी एक भाथी
कुछ काले से कोयले
कोयले के चन्द टुकड़ो की गोंद में
कुछ सफ़ेद, कुछ लाल सी आग
आग में घुसी कुछ खुरपियां, गंडासे
हंसिये और मुरचायी हुई कुदालें
भारी लोहे के टुकड़े की एक निहाई
एक सुघड़ हथौड़ा
जिससे पिटकर धारदार हो जाती हैं
सारी मुरचायी हुई, जंग खायी हुई
खुरपियां, गंडासे, हंसिये और कुदालें
ये सब करता है एक गुस्सैल लोहार
जिसका तना हुआ चेहरा
नाराज सी भौहें
बन्द सी जुबान
कमर में लिपटा एक गमछा और
देह पर मामूली सी बनियान
उसकी छप्पर के नीचे
एक ऐसा माहौल गढ़ते हैं
कि उसके सधे हुए मजबूत हाथ
इंसान के हक़ में रोज
झन्न-झन्न का संगीत रचते हैं
लोहार नफरती तलवार नहीं बनाते ।