लोहा / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
खान से निकला
तब इतना काला था लोहा कि
किसी ने उसका गहना बनाने की बात नहीं सोची
खान से निकले
सोने की, चाँदी की,
यहाँ तक कि चूने की भी चमक नहीं था उसके पास
मगर उसे झुकना नहीं आता था रास
उसकी देह में छिपी थी उसकी धार
जिसमें एक चमक थी आर पार
उसे तपाते हुए
उसके रेशे रेशे में
पके तरबूजों की लाली चमकती थी
धार आते ही उसमें चॉंदी गमकती थी
उसकी धार को पहचाने वालों ने
उसके चाकू बनाएं, कैचियाँ बनाई
तलवारें बनाई और तोपे भी बना डाली
वह ट्रेन की पटरियाँ बन कर
बोझा ढ़ोता है
किसी का गहना नहीं बना तो नहीं बना
उदास नहीं होता है
खान से निकला
तब इतना काला था लोहा कि
गहने बनाने वालो की उसे नजर नहीं लगी
वर्ना
उसकी भीतर की तलवार मर जाती
उसके बगैर अपना बोझा उठाए
यह दुनिया ना जाने किधर जाती
वह खून बनकर
नसों में दौड़ता है इसलिए
जिंदगी की लाली है
सारे गहनों की हकीकत
उसकी देखी भाली है
खान से निकला
तभी इतना काला था लोहा
मगर एक दिन
हर राज उसने खोला
हर चीज़ को उसने तौला
वह कितना मजबूत है मेरे मौला