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लोहे का घर: एक / शरद कोकास
Kavita Kosh से
सुरंग से गुजरती हुई रेल
बरसों पीछे ले जाती है
उम्र के साथ
बीते सालों के
फड़फड़ाते पन्नों को
खिड़की से आया
पहचानी हवा का झोंका
किसी एक खास पन्ने पर
रोक देता है
एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
रात भर जागकर बतियाने का सुख
उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श
स्वप्न देखने के लिये
टिकट लेना
कतई ज़रूरी नहीं है।