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लौटा लो यह गंध तुम्हारी / विमल राजस्थानी

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धरती तो ली छीन, किन्तु मुझसे मेरा आकाश न छीनो
करूणा विगलित रात ओस से-
लिख-लिख कर दूबों पर पाती
तारों के झिलमिल छवि-झाले-
देकर अपने देश बुलाती
पीत-पत्र-सा प्राणों के जो उड़ा लिए जा रहीं उसाँसे
गगन नाप लेने का इनका सहज-सरल विश्वास न छीनो
जल-स्तंभ-सा तुम घेरे ही रही
बुझी कब प्यास प्राण की
मृग मरीचिके ! बनी भ्रांति तुम-
जीवन-संध्या में, विहान की
प्यासे पंछी को तो अपने ही आँसू न दिये पीने पर-
शत-शत जन्मों तक प्यासी रहने वाली यह प्यास न छीनो
जहाँ-जहाँ भी मैं जाता हूँ
स्मृति की सुगंध पाता हूँ
कस्तूरी मृग-सा घायल हो-
लहूलुहान हुआ जाता हूँ
लौटा लो यह गंध तुम्हारी, घायल होने की लाचारी
पर, स्वर को उमगाने वाला सुधियों का संत्रास न छीनो
डाल-डाल पर फुदक-फुदक कर, छीन लिया गाना-मुस्काना
पर, सतरंगी पंख कतर कर, उड़ने का उल्लास न छीनो
जीना दूभर किया विहंगिनी ! पर जीने की आस न छीनो
उर निकुंज में पलित अहर्निश जीवन-सुमन खिलानेवाला
व्यथा-वेदना-पीड़ाओं के संग अश्रु का हास न छीनो