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लौटे मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान / द्वितीय खंड / गुलाब खंडेलवाल

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लौटे मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान
आश्रम से अनति दूर जड़ता ज्यों मूर्तिमान
थी जहाँ गौतमी बिता रही दिन तृण-समान
कह दिया किसीने राजकुँवर युग छवि-निधान
मृगया के हित हैं आये
. . .

पुरजन-परिजन से तिरस्कृता अबला, अनाथ
सहती समाज की घृणा न कोई संग-साथ
त्यक्ता तरुणी को पारस-मणि-सी लगी हाथ
प्रमुदित, शंकित, गर्वित, लज्जित-सी उठ हठात्
उसने नव वसन सजाये
. . .
 
दिन बीते, बीती रात, प्रात फिर साँझ हुई
बन गयी प्रतीक्षा जैसे विष की बुझी सुई
निस्तेज अहल्या बिना छुई ज्यों छुईमुई
मकड़ी-सी पाशबद्ध जैसे ककड़ी कड़ुई
सोये से मानों जागी
कटि पर घट ले आलुलित-केश, सद्य:स्नाता
चल दी कौशिक-मख-भूमि जिधर थी विख्याता
थे जहाँ बसे सुर-मुनि-सुख-दाता, भव-त्राता
युग अस्ति-नास्ति-से गौर-श्याम, दोनों भ्राता
जन-सेवा-हित गृह-त्यागी
 
देखे मुनि के सँग कोटि-काम-शोभाभिराम
इन्दीवर-निन्दित-नयन, राम, घन-सजल-श्याम
नत, शांत, मौन, स्वस्थित-से, चिर आनंद-धाम
युग भक्ति-मुक्ति-से चरण, भीत भाव के विराम
संकुचित धरा पर धरते
गंभीर, धीर, शुचि, सरल, गुणों के समुचय-से
पीछे लक्ष्मण तनु गौर, आ रहा यश जैसे
सब पाप-ताप कर क्षार स्नेहमय दृग-द्वय से
धनु-शर कर, उर मणि-माल, बढ़ रहे विस्मय-से
भव को आलोकित करते
. . .
 
श्यामल अलकें ज्यों बिछी शिला सम्मुख प्रभु के
राजीव-नयन गुरु की दिशि मुड़, संकुचित रुके
बोले मुनि, 'राघव! रघुकुल का गौरव न झुके
परित्यक्ता गौतम-वधू पाप से शतक्रतु के
यह अबला, दीन, बिचारी
आहत हरिणी-सी उर में विष की लिए चोट
बस तनिक तुम्हारी चरण-रेणु-हित रही लोट
प्रभु दो कलंकिनी को करुणा की अभय ओट
ढह जायें जिससे कोटि जन्म के पाप-कोट
फूले उदास फुलवारी'
 
मंगल-गौरव-छवि-धाम राम निष्काम बढ़े
अभिशप्त, तप्त भू की दिशि ज्यों घनश्याम बढ़े
तमपूर्ण गुहा में जैसे किरण ललाम बढ़े
छूते ही दृग से अश्रु-तुहिन अविराम झड़े
गल गयी शिला-सी नारी
युग-युग का पाप-ताप पल में जल हुआ क्षार
आ गयी तीर पर तरणी जैसे निराधार
साधन-भ्रष्टा ने पाया मानों सिद्धि-द्वार
पग से लिपटी कर उठी आर्त स्वर में पुकार
जग के छल-बल से हारी
. . .
  
अनुरागी मन के पावन पति पर ही उदार
मैं हाय! अभागिन, नागिन-सी कर उठी वार
प्रभु शिला बन गयी नारी शिर ले शाप-भार
तुम, देव! खोल दो आज हृदय के रुद्ध द्वार
जड़ता नव-जीवन पाये
. . .

'अंतर में जो भी कलुष, पाप, लांछना, व्यथा
सब बनें आज कंचन-सी पारस परस यथा
कैसे कह दूँ मैं, देव! कि जीवन गया वृथा
जब जुड़ी अहल्या के सँग पावन राम-कथा
कल्याणी, मंगलकारी!
जलता न हृदय में ग्रीष्म, नयन सावन होते!
क्यों आते जग में राम न जो रावण होते!
होते न पतित तो कहाँ पतित-पावन होते!
प्रभु! चरण तुम्हारे कैसे मनभावन होते
बनती न शिला जो नारी!'
 
दृग से झर-झर आँसू बरसे, रूँध गया गला
कह सकी न आगे कुछ भी भावाकुल अबला
बोले प्रभु करुणा-सजल, 'अहल्ये! न रो, भला
तू पावन सदा पूर्णिमा की ज्यों चन्द्र-कला,
अब और नहीं तपना है
वह क्षणिक हृदय की दुर्बलता, वह पाप-भार
कल का सारा जीवन जैसे बीती बयार
वह देख, आ रहे गौतम, पहला लिए प्यार
अब से नूतन जीवन, नव संसृति में सँवार
जो बीत गया सपना है
 
रवि-शशि-से मन की चपल वृत्ति में बँधे आप
किसके मानस में उदित न होते पुण्य-पाप!
गिर-गिर कर उठना चेतनता का यही माप
जन-जीवन पर बस उसी पुरुष की पड़ी छाप
जो कभी न दुख से हारा
जो तिल-तिल जलता गया, किन्तु बुझ सका नहीं
जो पल-पल लड़ता गया, कष्ट से थका नहीं
जो रुका न पथ पर, भय-विघ्नों से झुका नहीं
जो चूक गया फिर भी निज को खो चुका नहीं
जन वही मुझे है प्यारा
 
जो पीड़ित, लांछित, दीन, दुखी दुर्बल, अनाथ
चिर-पतित, अपावन, जग में चलते झुका माथ
मैं भक्ति-मुक्ति से भरता उनके रिक्त हाथ
दूँ बहा सृष्टि में प्रेम-जाह्नवी पुण्य-पाथ
बस इसी लिए आया हूँ
अब रहा न तेरी पावनता में मीन-मेष
बीती दुख की तम-निशा, सुखों का प्रात देख
मुनि-रोषानल में तप कर निर्मल कनक-रेख,
पढ़ आज, अहल्ये! नूतन जीवन-भाग्य-लेख
जो तेरे हित लाया हूँ’