लौट कर आए हो अपनी मान्यताओं के खिलाफ़ / द्विजेन्द्र 'द्विज'
लौट कर आए हो अपनी मान्यताओं के ख़िलाफ़
थे चले देने गवाही कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़
जो हमेशा हैं दुआओं प्रार्थनाओं के ख़िलाफ़
आ रही है बद्दुआ फिर उन खुदाओं के ख़िलाफ़
मौसमों ने पर कुतरने का किया है इन्तज़ाम
कब परिंदे उड़ सके कुछ भावनाओं के ख़िलाफ़
आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी
यूँ तो है दुनिया सभी आदिम—प्रथाओं के ख़िलाफ़
फूल, ख़ुश्बू, घर, इबादत, मुसकुराहट, तितलियाँ
ये सभी सपने रहे कुछ कल्पनाओं के ख़िलाफ़
रात—दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं
बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़
सींखचे ये, ज़ह्र ये, संत्रास, अंगारे, सलीब
कब नहीं रहते हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़
भूख, बेकारी, ग़रीबी, खौफ़, मज़हब का जुनूँ
माँगिए दिल से दुआ इन बद्दुआओं के ख़िलाफ़
कारख़ानों ,होटलों सड़कों घरों में था ग़ुलाम
हो गया बचपन गवाही योजनाओं के ख़िलाफ़
तजरिबे कर के ही लाती है दलीलें भी तमाम
हर नई पीढ़ी पुरानी मान्यताओं के ख़िलाफ़
अब ग़ज़ल, कविता कहानी गीत क्या देंगे हमें
लिख रही हैं ‘द्विज’! विधाएँ ही विधाओं के ख़िलाफ़