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वंचित के सपूत / मुनेश्वर ‘शमन’
Kavita Kosh से
दरद बेहद,
पीठ में भी पाँव में भी।
उगल मन के घाव में भी।
दब गेलय गरदन उठाबइत बोझ भारी।
चिढ़ाबय बरतन ई लोटा आउर थारी।
हम तो जललूँ,
धूप में भी छाँव में भी,
तेज भूख-अलाव में भी।
लगल हे दीमक जनम से जिन्दगी में।
स्नेह बिन दीवा धुआँबयबंदगी में।
फरक आ पइलय न
तनिको अभाव में भी।
आस के बहकाव में भी।
बखत बउराहा हवा तो बदचलन हे।
सीधा-सच्चा आदमी के अब मरन हे।
कठिन जीनइ,
सहर में भी गाँव में भी।
हिंसा में पथराव में भी।