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वक़ील की कविता / कात्यायनी

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कमीज़ें हमारी सफ़ेद हैं
कोट काले
जैसे मृत्‍यु की चादर काली होती है
लेकिन कफ़न सफ़ेद।
 
कहीं-कहीं हम मजबूर होते हैं
जैसे कि नदी में उतराती
तमाम लाशों को
हम न्‍याय नहीं दिला सकते।
अफ़सोस !
वे अक्‍सर लावारिस होती हैं।

पर हम लोगों को
दिलाते रहेंगे न्‍याय
वाजि़ब
या उससे भी कम फ़ीस लेकर।
देश की तमाम नदियों में उतराती,
सड़कों के किनारे, खेतों बियाबानों में
या प्‍लेटफ़ार्मों और रेल-लाइनों पर पड़ी
लावारिस लाशों से
न्‍यायपालिका का क्‍या रिश्‍ता होता है
 
क्‍या रिश्‍ता होता है
बन्‍दूक की गोली से
और जि़न्‍दगी से न्‍याय का,
का़नून की किताबों में
इनका उल्‍लेख नहीं होता।
 
हम सोचने लगे यह सब
तो अनर्थ हो जायेगा।
लोग न्‍याय नहीं पा सकेंगे।
शपथ खा भी लें
सच कहने की
तो उनसे जिरह कौन करेगा?

हमें तो डर है
कहीं लोग हमारी मदद के बिना ही
न्‍याय पा लेने की
कोशिश न करने लगें।

फरवरी 1996