वक़्त आएगा / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना
वक़्त आएगा तो मैं चला जाऊँगा
और चले जाओगे तुम
मगर घास रहेगी हरहमेश
और तब, जब हम नहीं होंगे इस दुनिया में
चमचमाती रहेगी बर्फ़
पर्वत शिखर पर,
ठीक वैसी ही, जैसी चमचमाती थी
सौ बरस पहले ।
हो सकता है कि हम शतायु हों
या, बस, एक बरस हो हमारे खाते में
जाना ही होगा हमें इस दुनिया से
दुख से सराबोर ।
क्या दुख की लकीर पीछे नहीं छोड़तीं ट्रेनें,
क्या आँसू नहीं बहाता पत्तियों के झड़ने पर देवदार,
क्या दिल नहीं डूबता हमारा
जब साँझ ढलने पर हम कहते हैं ’अलविदा’ सूरज को ।
चाहे घास हो या पहाड़ी बकरी
सब के लिए दुख का बायस है घरौन्दा छोड़ना
क्या कण्ठ नहीं रुँधता हमारा
जब दम तोड़ता है पहाड़ी गडरिये का अलाव ।
चकराओ मत कि सुबकती है नदी
जब उतराती है उसमें पेड़ की निर्जीव देह
यही है दुनिया की रीत
कि जो चला जाता है, उसके लिए बिलखते हैं हम ।
टुकड़े-टुकड़े होता है हमारा हृदय
जब सफ़र पर निकलती है चिड़िया
बसन्त में फिर घर लौटने के वास्ते
हम जानते हैं, जानते हैं हम
कि फिर आएगा ग्रीष्म, फिर आएगा कल
मगर विषाद में डूब जाते हैं हम
उनके गुज़रने पर ।
वक़्त आएगा तो चले जाएँगे हम और तुम
मगर घास रहेगी हरहमेश
नहीं रहेंगे हम और तुम इस दुनिया में
मगर चमचमाती रहेगी बर्फ़
जैसी चमचमाती थी, सौ बरस पहले
गगनचुम्बी पर्वत की चोटी पर ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना