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वज्रमूर्ख का तर्क / मलय रायचौधुरी / सुलोचना वर्मा

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आज शुक्रवार है। वेतन मिला है। शायद शरतकाल की पूर्णिमा है।
महीन मेघ के मध्य खेल रही है ज्योत्स्ना। मध्यरात्रि। सुनसान सड़क।
जरा सी ताड़ी चढ़ाई है। गुनगुना रहा हूँ अतुलप्रसाद।
कहीं कुछ नहीं है, अचानक आवारा कुत्तों का दल
भौंकने लगता है। पीछा करता है। दौड़ता रहता हूँ असहाय।
नहीं समझ पाया पहले। राजपथ आकर होंश आता है।
वेतन गिर गया है कहीं हाथ से। कैसे लौटूँगा घर?
कोई भी तो विश्वास नहीं करेगा। सोचेंगे खेली होगी रेस,
गया होगा वेश्या के घर, दोस्तों के साथ उड़ाया होगा।
बन्धु - बान्धव कोई नहीं है। रेस भी नहीं खेली कब से।
दूसरी स्त्रियों के खुले वक्ष पर अन्तिम बार हाथ कब लगाया था
भूल गया हूँ। नहीं जानता, विश्वास नहीं करता कोई भी क्यूँ।
मुझे तो लगता रहता है, जो नहीं किया वही किया है शायद।
जो नहीं कहा, मैंने वही कहा। फिर इस पूर्णिमा का मतलब क्या है?
क्यूँ इस वेतन का मिलना? क्यूँ गाना? क्यूँ ताड़ी?

फिर घुसना पड़ेगा बेहद गन्दी गली में। निर्घात कुत्ते
गन्ध सूंघकर जान जाएँगे। घेर लेंगे चारोंओर से।
जो होना है हो जाए। आज साला इस पार या उस पार।

मूल बंगला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा
लीजिए, अब मूल बंगला में यही कविता पढ़िए
                বজ্রমূর্খের তর্ক

আজকে শুক্কুরবার । মইনে পেয়েচি । বোধায় শরতকালের পুন্নিমে ।
পাতলা মেঘের মধ্যে জোসনা খেলচে । মাঝরাত । রাস্তাঘাট ফাঁকা ।
সামান্য টেনিচি তাড়ি । গাইচি গুনগুন করে অতুলপ্রসাদ ।
কোথাও কিচ্ছু নেই হঠাত নেড়ি-কুকুরের দল
ঘেউ ঘেউ করে ওঠে । তাড়া করে । বেঘোরে দৌড়ুতে থাকি ।
বুঝতে পারিনি আগে । রাজপথে এসে হুঁশ হয় ।
মাইনেটা পড়েচে কোথাও হাত থেকে । কী করে ফিরব বাড়ি ?
কেধ তো বিশ্বাস করবে না । ভাববে খেলেচে রেস,
গিয়েচে মাগির বাসা, বন্ধুদের সাথে নিয়ে বেলেল্লা করেচে ।
বন্ধুবান্ধব কেউ নেই । রেসও খেলি না কতকাল ।
অন্য স্ত্রীলোকের খোলা-বুকে হাত শেষ কবে দিয়েচি যে
ভুলে গেচি । জানি না বিশ্বাস করে না কেউ কেন ।
আমার তো মনে হতে থাকে, যা করিনি সেটাই করিচি বুঝি ।
যা কইনি, সেকথা বলিচি । তাহলে এ পুন্নিমের মানে ?
কেন এই মাইনে পাওয়া? কেন গান ? কেন তাড়ি ?

আবার ঢুকতে হবে রামনোংরা গলির ভেতরে । নির্ঘাত কুকুরগুলো
গন্ধ শঁকে টের পাবে । ছেঁকে ধরবে চারিদিক থেকে ।
যা হবার হয়ে যাক । আজ শালা এস্পার কিংবা ওস্পার ।